भृगु संहिता में भृगु जी ने अपने ज्ञान द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों की गति को देख कर उनका पृथ्वी और मनुष्यों पर पड़ने वाला प्रभाव जाना और अपने सिद्धांतो को प्रतिपादित किया. शोध एवं खोज के उपरांत उन्होंने ग्रहों और नक्षत्रों की गति तथा उनके पारस्परिक संबंधों के आधार पर कालगणना निर्धारित की गई.
पौराणिक कथा के अनुसार जब भृगु जी को ब्रह्म ऋषि मंडल में जब स्थान नहीं मिल मिला तो वह क्रोधित होकर भगवान विष्णु जी के पास पहुंचे. परंतु विष्णु जी निद्रामग्न थे अत: ऋषि के आने का उन्हें पता न चला अपनी अवहेलना देख भृगु जी ने क्रोद्धित होकर विष्णु जी के हृदय पर लात से प्रहार किया. जिससे विष्णु जी जाग उठे और उनसे पूछते हैं कि कहीं उन्हें उनके वक्षस्थल पर लात मारने से उन्हें चोट तो नहीं लगी. विष्णु भगवान का यह आचरण देख भृगु जी को अपनी गलती पर बहुत पछतावा होता है और वह उनसे क्षमा याचना करते हैं, जिस पर विष्णु भगवान उन्हें क्षमा कर देते हैं. लेकिन देवी लक्ष्मी भृगु जी को शाप दे देती हैं कि वह कभी भी ब्राह्मण के घर निवास नहीं करेंगी और ज्ञानी एवं सरस्वती के उपासक दरिद्र ही रहेंगे.
लेकिन महर्षि भ्रगु जी ने अपनी साधना और तपस्या के बल पर एक ऎसी विद्या का सूत्रपात किया जिसके माध्यम से ज्ञानी के पास भी लक्ष्मी सदैव उपस्थित रहीं जिसका नाम भृगु संहिता हुआ. कहते हैं कि भृगु संहिता संस्कृत में हुआ था जिसे दक्षिण भारतियों के ज्योतिषियों ने तमिल में अनुवादित किया. भृगु संहिता को दक्षिण भारत में भृगु नाडी़ के नाम से पुकारा जाता है. भृगु संहिता एक लोकप्रिय आर्ष ग्रंथ माना गया है. यह ग्रंथ अनेक जगहों पर बिखरा हुआ है.