soul form

आत्मा का स्वरूप – आत्मा का रहस्य | Soul form – aatma ka rahasya

 

► परिचय
1. आत्मा सफेद नहीं है, काला नहीं है, लाल नहीं है,.आत्मा सूक्ष्म भी नहीं है और स्थूल भी नहीं है|वह ज्ञान स्वरुप है | उसे योगी ज्ञान से ही जानता है |तुम इसे ज्ञानमय जानो |

2. आत्मा ब्राम्हन नहीं है, वैश्य नहीं है, क्षत्रिय नहीं है, क्षुद्र भी नहीं है | पुरूष, नपुंसक व स्त्रीलिंग भी नहीं है | इन सबको ज्ञानी विशेषरूप से जानता है|

3. आत्मा बुद्ध नहीं है, दिगम्बर नहीं है, आत्मा श्वेताम्बर भी नहीं है, आत्मा किसी भी वेश का धारी नहीं है , वह मात्र एक ज्ञान स्वरूप है, उसको योगी ध्यान से ही जानते है|

4. आत्मा गुरु नहीं है, शिष्य भी नहीं है, स्वामी नहीं है, नौकर भी नहीं है, शूरवीर नहीं है, कायर भी नहीं है, उच्च कुली भी नहीं है और नीच कुली भी नहीं है |

5. आत्मा मनुष्य नहीं है, देव भी नहीं है, आत्मा तिर्यन्च पशु भी नहीं है, आत्मा नारकी भी नहीं है, परन्तु ज्ञान स्वरूप है|

6. आत्मा विध्यावान व मूर्ख नहीं है,धनवान व दरिद्र भी नहीं है, जवान, बूढा और बालक भी नहीं है |

► आत्मा अर्थात जीव का अन्य वस्तुओं अर्थात अजीव से भेद
जीव अपना है तथा शरीर आदि पर पदार्थ अपने नहीं है| वे पर है| आत्मा पर नहीं होती, परद्रव्य कभी आत्मा नहीं होते|

बुढ़ापा, मरण रोग आदि शरीर के ही होते हैं, आत्मा तो अजर अमर है| इसलिए देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर|

ऐसा समझने से हम दुखों से घबराते नहीं हैं| हम सुख व दुःख का सम्बन्ध शरीर से जानते हैं| इसीलिये व्यापार में हानि होने पर , शरीर में बीमारी होने पर, किसी का वियोग होने पर अति दुखी नहीं होते | उन सबको शरीर से संबंधित क्रिया जानकर शांत बने रहते है| हम समझते हैं कि मैं तो शुद्ध आत्मा हूँ |

► आत्मा के प्रकार व बहिरात्मा की पहचान
आत्मा तीन प्रकार की होती है|

1. बहिरात्मा

2. अंतरात्मा

3. परमात्मा

► बहिरात्मा में स्थित व्यक्ति के लक्षण
बहिरात्मा को मूर्ख और जड़ आत्मा भी कहा जाता है| आत्मा को छोड़कर जो वस्तुओं में अधिक लीन रहता है वह मूर्ख आत्मा है| मैं गौरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं जैन हूँ, मैं ब्राम्हण हूँ, मैं जवान हूँ, मैं रूपवान हूँ, मैं बहादुर हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मूर्ख ऐसा मानकर गर्व करता है| फिर उस गर्व के कारण उसे बहुत दुख उठाना पड़ता है |

मूर्ख आत्मा माता-पिता, पति-पत्नि, पुत्र-पुत्री,घर व इन्द्रियों के विषयों में बहुत अधिक लीन रहते हैं और उनसे अलग होते ही व्याकुल होकर मानसिक तनाव से ग्रस्त हो जाते हैं | इस तरह की आत्मा वाले ना अपना विकास कर पाते और ना औरों के विकास में सहयोग दे पाते हैं | उनका कोई अच्छा मित्र नहीं बन पाता, जिससे उनकी वृद्ध अवस्था दयनीय हो जाती है| वे मनुष्य होकर भी मनुष्य जीवन का भरपूर आनंद नहीं ले पाते |

► अंतरात्मा की पहचान
अंतरात्मा को विचक्षण, दक्ष, नीतिकुशल तथा विवेकी आत्मा के नाम से भी जाना जाता है | अपभ्रंश भाषा में रचित परमात्मप्रकाश में अंतरात्मा बनने के लिए संवेदनात्मक वीतराग ज्ञान का होना आवश्यक माना है

अंतर आत्मा, बहिरात्मा और परमात्मा के बीच की वह कड़ी है जिसके होने से आत्मा परमात्मा बन जाती है और जिसके नहीं होने से आत्मा बहिरात्मा बन जाती है | पक्षपात अर्थात् राग रहित दया की भूमि पर जो ज्ञान विकसित होता है वही अंतर आत्मा बनने की प्रक्रिया है | इस प्रकार दया व राग रहित ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है जो मनुष्य को बहिरात्मा से हटाकर अंतरात्मा से परमात्मा की ओर अग्रसर करता है |

► परमात्मा का स्वरूप
हरि, हर आदि बड़े – बड़े पुरुष व स्रष्टि के सभी प्राणी जिनकी वंदना करते हैं, वह ही परमात्मा है|

जिसके सफेद काला आदि वर्ण, दुर्गन्ध, सुगन्ध आदि गंध, कड़वा,मीठा, खट्टा, आदि रस, ठंडा, गर्म, रूखा, कठोर, कोमल, आदि स्पर्श तथा जन्म व मरण नहीं है वही चिदानंदस्वभाव परमात्मा है|

जिसके क्रोध नहीं, मोह तथा कुल जाति आदि का अभिमान नहीं वही निरंजन परमात्मा है | जिसके पुण्य-पाप , राग-द्वेष नहीं, भूख-प्याष आदि एक भी दोष नहीं, वही परमात्मा है |

जिस शुद्ध आत्म स्वभाव में इन्द्रिय से उत्पन्न सुख-दुःख- नहीं, सोचने-विचारने का कोई व्यापार नहीं, वही शुद्धआत्मा अर्थात परमात्मा है |

जो निर्मल ध्यान का विषय है, जिसको देखने से पूर्व में किये समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, वही परमात्मा है|

जन्म- मरण, लाभ-हानि, सुख-दुःख, शत्रु-मित्र में समान भाव रखनेवाले पुरुषों के मन में जो कुछ प्रकट होता है, वही परमात्मा है |

जिसके ना बंध है ना संसार है तथा जो आत्मा सिद्धालय में रहती है वही परमात्मा है |

जो केवल दर्शन और केवल ज्ञानमयी है, जिसका केवल सुख स्वभाव है और अनंत वीर्यवाला है वह ही परमात्मा है |

जैसी निर्मल ज्ञानमय आत्मा सिद्धालय में रहती है वैसी ही निर्मल ज्ञानमय आत्मा देह में रहती है | इन दोनों में कोई भेद नहीं है |

जैसे अनंत आकाश में एक नक्षत्र ही समस्त संसार को प्रकाशित करता है उसी प्रकार परमात्मा के केवलज्ञान में तीनोँ लोक दर्पण के समान प्रकाशित हैं|

► बंध और मुक्ति
बंध और मुक्ति जैसी धर्म व कर्म की व्याख्या जितनी पूर्वजन्म से सम्बंधित है उससे कहीं अधिक वर्तमान जीवन से सम्बंधित है | वर्तमान जीवन में कोई भी व्यक्ति बंधन पसंद नहीं करता | सभी को मुक्ति प्रिय है |

राग – द्वेश या आसक्ति से सम्बन्ध ही बंधन है तथा इनसे आजादी का नाम ही मुक्ति है |

हम अपने चारों और अनेक वस्तुओं से घिरे हुए हैं | जब हम उन वस्तुओं में से किसी वस्तु को पसंद करते हैं या उससे नफरत करते हैं तब उसी पसंद और नफरत से उस वस्तु के साथ राग और द्वेश प्रारंभ हो जाता है | इसी का नाम बंधन है | जब हमें अपनी पसंद की वस्तु मिल जाती है तो कुछ समय के लिए खुशी होती है | इसके विपरीत जब वह वस्तु नहीं मिलती या मिली हुई वस्तु गायब हो जावे तो दुःख होता है| जो वस्तु सुख दे रही थी वही दुःख का कारण बन गयी | जिस प्रकार चाही हुई वस्तु क्र प्राप्त होने पर सुख मिलता है उसी प्रकार अनचाही वस्तु के मिलने से दुःख होता है| यह सुख-दुःख ही आसक्ति या बंधन है |

इस सुख-दुःख की प्रतिक्रया में ही हम अपना जीवन बिता देते हैं | कभी हमें अपना जीवन जीने का समय ही नहीं मिलता | या तो हम चाहत की खोज में रहते हैं या फिर अनचाहे को हटाने में लगे रहते हैं | परन्तु जो उपलब्ध है उसके उपयोग का आनंद नहीं उठा पाते | लखपति करोड़पति बनने की चाहत में दुखी होता रहता है | वह यह नहीं सोचता कि जो लाख रूपये हैं उसका उपयोग कैसे करूँ ? और यदि करोड़ भी कर लिए तो अरब करने की सोचेगा न कि वर्तमान को सुखी बनाएगा |

यदि हम आसक्ति छोड़ द्रष्टा भाव से देखने की कोशिश करे तब ही सुख का अनुभव होगा | यह सुख ऐसा होगा जिसमे वर्तमान की वस्तु गायब भी हो गयी हो तो दुःख नहीं होगा | सुख-दुःख मन की स्थिति है | मन की आसक्ति बंधन है और बंधन है तो दुःख है| अनासक्ति में ना सुख होगा और ना दुःख, केवल समभाव होगा | समभाव में रहना ही बंधन का अभाव अर्थात मुक्ति है | मुक्त जीवन में ही स्थाई आनंद है | वर्तमान जीवन मुक्त होकर जीवें | क्योंकि यदि यह जन्म ही नहीं सुधरेगा तो आगे का कैसे सुधरेगा | बीज ही ख़राब हो तो वृक्ष या फल अच्छा कैसे होगा?

इसलिए सबसे पहले हम आसक्ति कम कर वर्तमान को सुधारें और बंधन मुक्त होकर जीवें | परलोक अपनेआप सुधर जावेगा | हम सबको समझना आवश्यक है कि आसक्ति बंधन है और अनासक्ति [समभाव] मुक्ति है |

परमात्म प्रकाश में कहा है –

भुंजतु वि निय-कम्म-फलु मोहइं जो जि करेइ|

भोय असुन्दरु सुंदरु वि सो पर कम्मु जणेइ अर्थात

जो जीव अपने कर्मों के फल को भोगता हुआ आसक्ति से अच्छा -बुरा विचारता रहता है वह नये- नये बंधन में पड़ता रहता है |

भुन्जंतु वि निय-कम्म -फलु जो तहिं राउ ण जाइ |

सो णवि बंधइ कम्मु पुणु संचिउ जेण विलाइ|| अर्थात

जो जीव अपने कर्मों के फल को भोगता हुआ उसमें लीन नहीं होता वह फिर से बंधन में नहिं बंधता और पूर्व के बंधन भी नष्ट करता है | धीरे – धीरे वह मुक्ति की और अग्रसर होता है |

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