► परिचय
नक्षत्र मेलापक के अष्ट कूटों में नाड़ी सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह व्यक्ति के मन एवं मानसिक ऊर्जा की सूचक होती है। व्यक्ति के निजी सम्बन्ध उसके मन एवं उसकी भावना से नियंत्रित होते है। जिन-जिन व्यक्तियों में भावनात्मक पूरकता होती है, उनके संबंधो में घनिष्टता और जिनमें भावनात्मक समानता, या प्रतिद्वंदिता होती है, उनके संबंधों में टकराव पाया जाता है।
जैसे शरीर के वात, पित्त एवं कफ़, इन तीन दोषों की जानकारी उनकी कलाई पर चलने वाली नाड़ियों से प्राप्त की जाती है। उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी आदि, मध्य एवं अंत्य नाड़ी के द्वारा मिलती है। वैदिक ज्योतिष के आचार्यों ने आदि, मध्य एवं अंत्य इन तीनो नाड़ियों को यथाक्रमेण, आवेग, उद्वेग एवं संवेग का सूचक माना है। कुछ अन्य आचार्यों का मत है कि तीनो नाड़ियां, यथाक्रमेण, संकल्प, विकल्प एवं प्रतिक्रिया की सूचक होती हैं। मानवीय मन भी कुल मिलाकर संकल्प, विकल्प या प्रतिक्रिया ही करता है और व्यक्ति की मनोदशा का मूल्यांकन उसके आवेग, उद्वेग या संवेग के द्वारा होता है। इस प्रकार मेलापक में नाड़ी के माध्यम से जातक की मानसिकता, मनोदशा का मूल्यांकन किया जाता है।
वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूट दोष एवं नाड़ी दोष – इन तीनों को सावधिक महत्त्व दिया जाता है। यह इस बात से ही स्पष्ट है कि ये तीनों ३६ गुणों में से (६+७+८=२१) कुल २१ गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) १५ गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अकेली नाड़ी के ८ गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि ८ कूटों कि तुन्लना में सर्वाधिक हैं। इसलिए नक्षत्र मेलापक में नाड़ी दोष एक महादोष माना जाता है।
► नाड़ी विचार
नाड़ी कूट में ३ नाड़ियां होती हैं आदि नाड़ी, मध्य नाड़ी एवं अंत्य नाड़ी। नक्षत्रों की संख्या २७ और नाड़ियों की संख्या ३ होने के कारण प्रत्येक नाड़ी में ९-९ नक्षत्र आते हैं। व्यक्ति की नाड़ी का निश्चय उसके जन्म नक्षत्र के आधार पर किया जाता है।
► नाड़ी दोष
जिस प्रकार वात प्रकृति के व्यक्ति के लिए वात गुण वाले पदार्थों का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है, अथवा कफ़ प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए कफ़ नाड़ी के चलने पर कफ़ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार नक्षत्र मेलापक में वर-वधू की एक समान नाड़ी का होना, उनके मानसिक और भावनात्मक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण, वर्जित माना गया है। तात्पर्य यह है कि लड़की-लड़के कि एक समान नाड़ियां हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि उनकी मानसिकता के कारण, उनमें सामंजस्य होने कि सम्भावना अधिकतम पायी जाती है। इसलिए मेलापक में आदि नाड़ी के साथ आदि का, मध्य नाड़ी के साथ मध्य का और अंत्य नाड़ी के साथ अंत्य का मेलापक वर्जित होता है, जबकि लड़की और लड़के को भिन्न-भिन्न नाड़ी होना उनके दांपत्य संबंधों में शुभता का द्योतक होता है।
जिस लड़की-लड़के का एक समान नक्षत्र हो, या एक समान राशि हो तो इस विशेष परिस्थिति में नाड़ी दोष प्रभावहीन हो जाता है जिसको नाड़ी दोष का परिहार कहते हैं। यह परिहार इन परिस्थितियों में होता है :-
यदि लड़की और लड़के का जन्म नक्षत्र एक ही हो, तो उन दोनों कि नाड़ी भी एक ही होगी और प्रथम दृष्टि मैं यह नाड़ी दोष प्रतीत होगा। किन्तु यदि एक ही नक्षत्र में उत्पन्न लड़की और लड़के के नक्षत्र के चरण भिन्न-भिन्न हों तो नाड़ी दोष कर परिहार हो जाता है। इसका कारण यह है कि एक समान नक्षत्र में उत्पन्न युगल के आठ कूटों में से सात कूट वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह-मैत्री, गण एवं भकुट शुभ एवं शुद्ध होते हैं। और एक समान नक्षत्र होने के कारण उनकी मानसिकता में आत्मीय भाव होता है। नक्षत्र के चरण भिन्न होने से नवमांश का भेद होने के कारण, उनमे पूरकता होती है। अतः इस स्थिति में उनके अहं के टकराव कि सम्भावना टल जाती है। परिणामस्वरूप एक नक्षत्र में भिन्न-भिन्न चरणों में उत्पन्न वर-वधु का, नाड़ी दोष होने पर भी विवाह किया जा सकता है।