भौतिक जगत् का पहला आध्यात्मिक रहस्य है जन्म, और मृत्यु है दूसरा जो जन्म के रहस्य को दोगुना चकरानेवाला बना देता है; क्योंकि जीवन, जो अन्यथा अस्तित्व का एक स्वयंसिद्ध तथ्य होता, वह भी इन दोनों के कारण रहस्य बन जाता है । ये दोनों उसके आरम्भ और अंत मालूम होते हैं फिर भी हजारों तरीकों से यह प्रकट कर देते हैं कि वे इन दोनों में से एक भी नहीं हैं बल्कि जीवन की एक गुह्य प्रक्रिया के मध्यवर्ती पडाव हैं । पहली दृष्टि में ऐसा लग सकता है कि जन्म व्यापक मृत्य में जीवन का सतत विस्फोट, जड पदार्थ की वैश्व निष्प्राणता में निरंतर परिस्थिति है। ज्यादा नजदीक से परीक्षा करने पर यह अधिक सम्भव लगने लगता है कि जीवन कोई ऐसी चीज है जो जड में अंतर्निहित है या उस ऊर्जा की निहित शक्ति है जो जड का सृजन करती है लेकिन प्रकट होने योग्य तभी होती है जब उसे अपने विशिष्ट व्यापार को अभिपुष्टि के लिये और उचित आत्म-संगठन के लिये आवश्यक परिस्थितियां मिल जायें । लेकिन जीवन के जन्म में कुछ और भी है, जो आविर्भाव में भाग लेता है – एक ऐसा तत्व है जो जड भौतिक नहीं है, किसी अंतरात्मा की ज्वाला का प्रबल उभार, आत्मा का प्रथम स्पष्ट स्पंदन है ।
जन्म की सभी ज्ञात परिस्थितियां और परिणाम हम पहले से मान लेते हैं कि कोई अज्ञान अतीत रहा है, और एक विश्वव्यापकता का संकेत मिलता है, जीवन के टिके रहने की इच्छा और और मृत्यु में एक अनिर्णायकता मिलती है जो अज्ञात भविष्य की ओर संकेत करती है । जन्म से पहले हम क्या थे और मृत्यु के बाद हम क्या होंगे ये ऐसे प्रश्न हैं जिनमें एक का उत्तर दूसरे पर निर्भर होता है । मानव बुद्धि शुरु से इन्हें अपने आगे रखती आई है और अभी तक किसी अंतिम समाधान मे विश्राम नहीं कर पायी है । वस्तुतः बुद्धि मुश्किल से ही इनका कोई अंतिम उत्तर दे सकती है क्योंकि उसे स्वभावतः व्यक्ति या जाति की भौतिक चेतना और स्मृति द्वारा दी गयी सामग्री के परे होना चाहिये । लेकिन यही तो वह एकमात्र सामग्री है जिसके साथ कुछ-कुछ विश्वास के साथ परामर्श करने का अभ्यास रहता है बुद्धि को । सामग्री की इस दरिद्रता और अनिश्चिति में वह एक परिकल्पना से दूसरी पर जाती रहती है और बारी-बारी से हर एक को निष्कर्ष कहती है । और फिर समाधान वैश्व गतिविधि के स्वभाव, उद्गम और उद्देश्य पर निर्भर रहता है । जैसे हम इनका निश्चय करेंगे उसी तरह हमें जन्म, जीवन और मृत्यु, जीवन-पूर्व और जीवन-पश्चात् के बारे मे निष्कर्ष निकालना होगा ।
पहला प्रश्न यह है कि क्या पूर्व और पश्चात् शुद्ध रूप से भौतिक और प्राणिक हैं या किसी तरह से अधिक मुख्य रूप में मानसिक और आध्यात्मिक ? अगर, जैसा कि जडवादी कहते हैं, जड ही विश्व का तत्व होता, अगर वस्तुओं का सत्य वरुण के पुत्र के भृगु के बतलाये हुये पहले सूत्र में पाया जाता, जो उन्होंने शाश्वत ब्रह्म का ध्यान करके कहा था,”अन्न (जडतत्व) ही शाश्वत है, क्योंकि सभी सत्ताएं अन्न से ही उत्पन्न हुई हैं और अन्न से ही जीती हैं, अन्न में ही सभी सत्ताएं प्रयाण करती और उसी में लौट जाती हैं ” तो फिर और प्रश्नों की सम्भावना ही नहीं रहती । हमारे शरीरों का पूर्व होगा विभिन्न भौतिक तत्त्वों में से बीज और भोजन के उपादान द्वारा शायद गुह्य परंतु सदा जड-भौतिक ऊर्जाओं के प्रभाव तले उनके घटकों का संचय, और हमारी सचेतन सत्ता का पूर्व होगा – आनुवंशिकता या किसी और भौतिक-प्राणिक या भौतिक-मानसिक क्रिया द्वारा वैश्व जड-भौतिक में तैयारी, जिसमें उसकी क्रिया विशेष होती है और व्यक्ति की रचना उसके माता-पिता के शरीरों द्वारा बीज, “जीन” और “क्रोमोज़ोम” द्वारा होती है । शरीर का पश्चात् होगा भौतिक तत्वों में विघटन और मानवजाति के सामान्य मन और जीवन में उसकी क्रियाओं के कुछ प्रभावों की उत्तरजीविता के अतिरिक्त सचेतन सत्ता का पश्चात् होगा जड-भौतिक में पुनः पतन । यह अंतिम एकदम भ्रामक उत्तरजीविता ही हमारी अमरता का एकमात्र अवसर होगी ।
लेकिन चुंकि जड की विश्वव्यापकता के बारे में यह नहीं माना जा सकता है कि वह मन के अस्तित्व की काफी व्याख्या कर सकती है और वस्तुतः स्वयं जड की व्याख्या अब जड से नहीं की जा सकती क्योंकि वह स्वयंभू नहीं मालूम होता, इसलिये हमें सरल और प्रत्यक्ष समाधान से अन्य परिकल्पनाओं में वापिस फेंक दिया जाता है ।
इनमें से एक पुराना, धार्मिक और रुढिगत रहस्य यह है कि भगवान्, जो निरंतर अपनी सत्ता के अंदर से अमर अंतरात्माओं का सृजन करते रहते हैं या यह मान लिया जाये कि अपने “श्वास” या प्राण-शक्ति द्वारा जड-प्रकृति में या उन शरीरों में, जिनकी उन्होंने रचना की है, उनमें प्रवेश करके भीतर से आध्यात्मिक तत्व द्वारा जीवित कर देते हैं । श्रद्धा के रहस्य के रूप में इसे माना जा सकता है और इसकी खोज-बीन करने की जरुरत नहीं श्रद्धा के रहस्य प्रश्न और जांच के परे रहने चाहियें ।
लेकिन तर्क-बुद्धि और दर्शन के लिये उसमें विश्वासोत्पादकता की कमी है और वह चीजों की ज्ञात व्यवस्था में ठीक नहीं बैठती । क्योंकि इसमें दो विरोधाभास उलझे हुये हैं जिनपर विचार करने से पहले उनका अधिक औचित्य सिद्ध करने की जरुरत है । पहला तो है हर घडी ऐसी सत्ताओं का जन्म जिनका काल में आरम्भ तो है पर काल में अंत नहीं है, और इसके अलावा जो शरीर के जन्म के साथ पैदा तो होती हैं पर शरीर की मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होतीं । दूसरे, यह मान्यता है कि मिश्रित धर्मों, गुणों, अवगुणों, त्रुटियों, स्वभाव के तथा अन्य लाभ-हानि, जिन्हें मनुष्यों ने वृद्धि के द्वारा बनाया तो नहीं है बल्कि जिन्हें उनके लिये एक मनमाने आदेश द्वारा – अगर आनुवंशिकता के नीयम द्वारा नहीं- बनाया गया है और जिसके लिये और जिसके पूरे पक्के उपयोग के लिये उनका स्रष्टा उन्हें जिम्मेदार ठहराता है ।
कम-से-कम अस्थायी रुप से हम कुछ चीजों को दार्शनिक युक्ति की उचित मान्यताएं मान सकते हैं और उचित रूप से उन्हें अप्रमाणित करने का भार उनसे इंकार करनेवाले पर डाल सकते हैं । इन आधार तत्वों में से एक सिद्धांत यह है कि जिसका कोई अंत नहीं है उसका निश्चित रूप से कोई आदि भी न रहा होगा । वह सब, जिसका आरम्भ होता है या जिसका सृजन होता है, उसका अंत उस प्रक्रिया की समाप्ति से होता है जिसने उसका सृजन किया और जो उसको बनाये हुये है या वह जिस सामग्री के मिश्रण से बना है उसके विघटन से या वह जिस कार्य के लिये अस्तित्व में आया था उसकी समाप्ति से । अगर इस नियम में कोई अपवाद है तो वह जडतत्व में आध्यात्मिक तत्व के अवतरण द्वारा जो जड को भागवत तत्व से अनुप्राणित कर देता है या उसे अपनी ही अमरता प्रदान करता है । लेकिन जिस आत्मा का इस तरह अवतरण होता है वह अपने-आप अमर होती है, उसकी रचना या सृष्टि नहीं होती । अगर अंतरात्मा शरीर को अनुप्राणित करने के लिये बनायी गयी होती, अगर वह अस्तित्व में आने के लिये शरीर पर निर्भर होती तो शरीर के गायब हो जाने के बाद उसके बने रहने के लिये कोई कारण या आधार न होता । स्वभावतः यह मानना होगा कि श्वास या शक्ति जो शरीर को अनुप्राणित करने के लिये दी गयी थी वह अपने अंतिम विघटन पर अपने सृष्टा के पास लौट जायेगी ।
यदि इसके विपरीत वह अमर शरीरधारी सत्ता के रूप में बनी रहे तो कोई सूक्ष्म या चैत्य शरीर होना चाहिये जिसमें वह बनी रहती है और यह काफी हदतक निश्चित है कि यह चैत्य शरीर और उसका निवासी अपने जडवाहक से पूर्ववर्ती रहे होंगे । यह मानना असंगत मालूम होता है कि मूल रूप में उनकी रचना इस संक्षिप्त से मर्त्य रूप में बसने के लिये दी गयी थी । एक अमर सत्ता सृष्टि में ऐसी क्षणभंगुर घटना का परिणाम नहीं हो सकती । अगर अंतरात्मा बनी तो रहती है परंतु अशरीरी अवस्था में, तो अपने अस्तित्व के लिये उसकी मौलिक निर्भरता शरीर पर ना रही होगी; वह जन्म से पहले उसी तरह विदेह आत्मा के रूप में रही होगी जैसे वह मृत्यु के बाद अशरीरी रूप में बनी रहती है ।