यशोधर बाबू के कितने बेटे थे और वे क्या करते थे?
यशोधर बाबू के चार बेटे थे, ३ लड़के और एक लड़की
- उनका बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पर लग गया था। यशोधर बाबू को यह भी ‘समहाउ’ लगता था क्योंकि यह कंपनी शुरू में ही डेढ़ हजार रुपये प्रतिमाह वेतन देती थी। उन्हें कुछ गड़बड़ लगती थी।
- उनका दूसरा बेटा आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था। उसका एलाइड सर्विसेज में न जाना भी उनको अच्छा नहीं लगता।
- उनका तीसरा बेटा स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चला गया।
- उनकी एकमात्र बेटी शादी से इनकार करती है। साथ ही वह डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए अमेरिका जाने की धमकी भी देती है। वे अपने बच्चों की तरक्की से खुश हैं, परंतु उनके साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते।
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यह लंबी कहानी लेखक की अन्य रचनाओं से कुछ अलग दिखाई देती है। आधुनिकता की ओर बढ़ता हमारा समाज एक ओर कई नई उपलब्धियों को समेटे हुए है तो दूसरी ओर मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाले मूल्य कहीं घिसते चले गए हैं।
जो हुआ होगा और समहाउ इंप्रापर के दो जुमले इस कहानी के बीज वाक्य हैं। जो हुआ होगा में यथास्थितिवाद यानी ज्यों-का-त्यों स्वीकार लेने का भाव है तो समहाउ इंप्रापर में एक अनिर्णय की स्थिति भी है। ये दोनों ही भाव इस कहानी के मुख्य चरित्र यशोधर बाबू के भीतर के द्वंद्व हैं। वे इन स्थितियों का जिम्मेदार भी किसी व्यक्ति को नहीं ठहराते। वे अनिर्णय की स्थिति में हैं।
दफ़्तर में सेक्शन अफ़सर यशोधर पंत ने जब आखिरी फ़ाइल का काम पूरा किया तो दफ़्तर की घड़ी में पाँच बजकर पच्चीस मिनट हुए थे। वे अपनी घड़ी सुबह-शाम रेडियो समाचारों से मिलाते हैं, इसलिए वे दफ़्तर की घड़ी को सुस्त बताते हैं। इनके कारण अधीनस्थ को भी पाँच बजे के बाद भी रुकना पड़ता है। वापसी के समय वे किशन दा की उस परंपरा का निर्वाह करते हैं जिसमें जूनियरों से हल्का मजाक किया जाता है।
दफ़्तर में नए असिस्टेंट चड्ढा की चौड़ी मोहरी वाली पतलून और ऊँची एड़ी वाले जूते पंत जी को ‘समहाउ इंप्रापर’ मालूम होते हैं। उसने थोड़ी बदतमीजीपूर्ण व्यवहार करते हुए पंत जी की चूनेदानी का हाल पूछा। पंत जी ने उसे जवाब दिया। फिर चड्ढा ने पंत जी की कलाई थाम ली और कहा कि यह पुरानी है। अब तो डिजिटल जापानी घड़ी ले लो। सस्ती मिल जाती है। पंत जी उसे बताते हैं कि यह घड़ी उन्हें शादी में मिली है। यह घड़ी भी उनकी तरह ही पुरानी हो गई है। अभी तक यह सही समय बता रही है।
इस तरह जवाब देने के बाद एक हाथ बढ़ाने की परंपरा पंत जी ने अल्मोड़ा के रेम्जे स्कूल में सीखी थी। ऐसी परंपरा किशन दा के क्वार्टर में भी थी जहाँ यशोधर को शरण मिली थी। किशन दा कुंआरे थे और पहाड़ी लड़कों को आश्रय देते थे। पंत जी जब दिल्ली आए थे तो उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। तब किशन दा ने उन्हें मैस का रसोइया बनाकर रख लिया। उन्होंने यशोधर को कपड़े बनवाने व घर पैसा भेजने के लिए पचास रुपये दिए। इस तरह वे स्मृतियों में खो गए। तभी चड्ढा की आवाज से वे जाग्रत हुए और मेनन द्वारा शादी के संबंध में पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए कहने लगे’नाव लेट मी सी, आई वॉज़ मैरिड ऑन सिक्स्थ फरवरी नाइंटीन फ़ोर्टी सेवन।’
मेनन ने उन्हें ‘सिल्वर वैडिंग की बधाई दी। यशोधर खुश होते हुए झेपे और झंपते हुए खुश हुए। फिर भी वे इन सब बातों को अंग्रेजों के चोंचले बताते हैं, किंतु चड्ढा उनसे चाय-मट्ठी व लड्डू की माँग करता है। यशोधर जी दस रुपये का नोट चाय के लिए देते हैं, परंतु उन्हें यह ‘समहाउ इंप्रॉपर फाइंड’ लगता है। अत: सारे सेक्शन के आग्रह पर भी वे चाय पार्टी में शरीक नहीं होते है। चडढ़ा के जोर देने पर वे बीस रुपये और दे देते हैं, किंतु आयोजन में सम्मिलित नहीं होते। उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक्त बरबाद करना उनकी परंपरा के विरुद्ध है।
यशोधर बाबू ने इधर रोज बिड़ला मंदिर जाने और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनने या स्वयं ही प्रभु का ध्यान लगाने की नयी रीति अपनाई है। यह बात उनकी पत्नी व बच्चों को अखरती थी। क्योंकि वे बुजुर्ग नहीं थे। बिड़ला मंदिर से उठकर वे पहाड़गंज जाते और घर के लिए साग-सब्जी लाते। इसी समय वे मिलने वालों से मिलते थे। घर पर वे आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते थे।
आज यशोधर जब बिड़ला मंदिर जा रहे थे तो उनकी नजर किशन दा के तीन बेडरूम वाले क्वार्टर पर पड़ी। अब वहाँ छह-मंजिला मकान बन रहा है। उन्हें बहुमंजिली इमारतें अच्छी नहीं लग रही थीं। यही कारण है कि उन्हें उनके पद के अनुकूल एंड्रयूजगंज, लक्ष्मीबाई नगर पर डी-2 टाइप अच्छे क्वार्टर मिलने का ऑफ़र भी स्वीकार्य नहीं है और वे यहीं बसे रहना चाहते हैं। जब उनका क्वार्टर टूटने लगा तब उन्होंने शेष क्वार्टर में से एक अपने नाम अलाट करवा लिया। वे किशन दा की स्मृति के लिए यहीं रहना चाहते थे।
पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी व बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात पर मतभेद होने लगा है। इसी वजह से उन्हें घर जल्दी लौटना अच्छा नहीं लगता था। उनका बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पर लग गया था। यशोधर बाबू को यह भी ‘समहाउ’ लगता था क्योंकि यह कंपनी शुरू में ही डेढ़ हजार रुपये प्रतिमाह वेतन देती थी। उन्हें कुछ गड़बड़ लगती थी। उनका दूसरा बेटा आई०ए०एस० की तैयारी कर रहा था। उसका एलाइड सर्विसेज में न जाना भी उनको अच्छा नहीं लगता। उनका तीसरा बेटा स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चला गया। उनकी एकमात्र बेटी शादी से इनकार करती है। साथ ही वह डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए अमेरिका जाने की धमकी भी देती है। वे अपने बच्चों की तरक्की से खुश हैं, परंतु उनके साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते।
यशोधर की पत्नी संस्कारों से आधुनिक नहीं है, परंतु बच्चों के दबाव से वह मॉडर्न बन गई है। शादी के समय भी उसे संयुक्त परिवार का दबाव झेलना पड़ा था। यशोधर ने उसे आचार-व्यवहार के बंधनों में रखा। अब वह बच्चों का पक्ष लेती है तथा खुद भी अपनी सहूलियत के हिसाब से यशोधर की बातें मानने की बात कहती है। यशोधर उसे ‘शालयल बुढ़िया’, ‘चटाई का लहँगा’ या ‘बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे’ कहकर उसके विद्रोह का मजाक उड़ाते हैं, परंतु वे खुद ही तमाशा बनकर रह गए। किशन दा के क्वार्टर के सामने खड़े होकर वे सोचते हैं कि वे शादी न करके पूरा जीवन समाज को समर्पित कर देते तो अच्छा होता।
यशोधर ने सोचा कि किशन दा का बुढ़ापा कभी सुखी नहीं रहा। उनके तमाम साथियों ने मकान ले लिए। रिटायरमेंट के बाद किसी ने भी उन्हें अपने पास रहने की पेशकश नहीं की। स्वयं यशोधर भी यह पेशकश नहीं कर पाए क्योंकि वे शादीशुदा थे। किशन दा कुछ समय किराये के मकान में रहे और फिर अपने गाँव लौट गए। सालभर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें कोई बीमारी भी नहीं हुई थी। यशोधर को इसका कारण भी पता नहीं। वे किशन दा की यह बात याद रखते थे कि जिम्मेदारी पड़ने पर हर व्यक्ति समझदार हो जाता है।
वे मन-ही-मन यह स्वीकार करते थे कि दुनियादारी में उनके बीवी-बच्चे अधिक सुलझे हुए हैं, परंतु वे अपने सिद्धांत नहीं छोड़ सकते। वे मकान भी नहीं लेंगे। किशन दा कहते थे कि मूरख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। रिटायरमेंट होने पर गाँव के पुश्तैनी घर चले जाओ। वे इस बात को आज भी सही मानते हैं। उन्हें पता है कि गाँव का पुश्तैनी घर टूट-फूट चुका है तथा उस पर अनेक लोगों का हक है। उन्हें लगता है कि रिटायरमेंट से पहले कोई लड़का सरकारी नौकरी में आ जाएगा और क्वार्टर उनके पास रहेगा। ऐसा न होने पर क्या होगा, इसका जवाब उनके पास नहीं होता।
बिड़ला मंदिर के प्रवचनों में उनका मन नहीं लगा। उम्र ढलने के साथ किशन दा की तरह रोज मंदिर जाने, संध्या-पूजा करने और गीता-प्रेस गोरखपुर की किताबें पढ़ने का यत्न करने लगे। मन के विरोध को भी वे अपने तकों से खत्म कर देते हैं। गीता के पाठ में ‘जनार्दन’ शब्द सुनने से उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आई। उनकी चिट्ठी से पता चला कि वे बीमार है। यशोधर बाबू अहमदाबाद जाना चाहते हैं, परंतु पत्नी व बच्चे उनका विरोध करते हैं। यशोधर खुशी-गम के हर मौके पर रिश्तेदारों के यहाँ जाना जरूरी समझते हैं तथा बच्चों को भी वैसा बनाने की इच्छा रखते हैं। किंतु उस दिन हद हो गई जिस दिन कमाऊ बेटे ने यह कह दिया कि “आपको बुआ को भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूँगा।”
यशोधर की पत्नी का कहना है कि उन्होंने बचपन में कुछ नहीं देखा। माँ के मरने के बाद विधवा बुआ ने यशोधर का पालन-पोषण किया। मैट्रिक पास करके दिल्ली में किशन दा के पास रहे। वे भी कुंवारे थे तथा उन्हें भी कुछ नहीं पता था। अत: वे नए परिवर्तनों से वाकिफ़ नहीं थे। उन्हें धार्मिक प्रवचन सुनते हुए भी पारिवारिक चिंतन में डूबा रहना अच्छा नहीं लगा। ध्यान लगाने का कार्य रिटायरमेंट के बाद ठीक रहता है। इस तरह की तमाम बातें यशोधर बाबू पैदाइशी बुजुर्गवार है, क्यों में औरउ के हीलबे में कहा कते हैं तथा कहाक्रउ की ही तह ही सी लगनतीस हँसी हँस देते हैं।
जब तक किशन दा दिल्ली में रहे, तब तक यशोधर बाबू ने उनके पट्टशिष्य और उत्साही कार्यकर्ता की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाई। उनके जाने के बाद घर में होली गवाना, रामलीला के लिए क्वार्टर का एक कमरा देना, ‘जन्यो पुन्यू’ के दिन सब कुमाऊँनियों को जनेऊ बदलने के लिए घर बुलाना आदि कार्य वे पत्नी व बच्चों के विरोध के बावजूद करते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि बच्चे उनसे सलाह लें, परंतु बच्चे उन्हें सदैव उपेक्षित करते हैं। प्रवचन सुनने के बाद यशोधर बाबू सब्जी मंडी गए। वे चाहते थे कि उनके लड़के घर का सामान खुद लाएँ, परंतु उनकी आपस की लड़ाई से उन्होंने इस विषय को उठाना ही बंद कर दिया। बच्चे चाहते थे कि वे इन कामों के लिए नौकर रख लें। यशोधर को यही ‘समहाउ इंप्रॉपर’ मालूम होता है कि उनका बेटा अपना वेतन उन्हें दे। क्या वह ज्वाइंट एकाउंट नहीं खोल सकता था? उनके ऊपर, वह हर काम अपने पैसे से करने की धौंस देता है। घर में वह तमाम परिवर्तन अपने पैसों से कर रहा है। वह हर चीज पर अपना हक समझता है।
सब्जी लेकर वे अपने क्वार्टर पहुँचे। वहाँ एक तख्ती पर लिखा था-वाई०डी० पंत। उन्हें पहले गलत जगह आने का धोखा हुआ। घर के बाहर एक कार थी। कुछ स्कूटर, मोटर-साइकिलें थीं तथा लोग विदा ले-दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन कागजों की झालरें व गुब्बारे लटक रहे थे। उन्होंने अपने बेटे को कार में बैठे किसी साहब से हाथ मिलाते देखा। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्होंने अपनी पत्नी व बेटी को बरामदे में खड़ा देखा जो कुछ मेमसाबों को विदा कर रही थीं। लड़की जींस व बगैर बाँह का टॉप पहने हुए थी। पत्नी ने होंठों पर लाली व बालों में खिजाब लगाया हुआ था। यशोधर को यह सब ‘समहाउ इंप्रापर’ लगता था।
यशोधर चुपचाप घर पहुँचे तो बड़े बेटे ने देर से आने का उलाहना दिया। यशोधर ने शर्मीली-सी हँसी हँसते हुए पूछा कि हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है? यशोधर के दूर के भांजे ने कहा, “जबसे तुम्हारा बेटा डेढ़ हजार महीने कमाने लगा है, तब से।” यशोधर को अपनी सिल्वर बैडिंग की यह पार्टी भी अच्छी नहीं लगी। उन्हें यह मलाल था कि सुबह ऑफ़िस जाते समय तक किसी ने उनसे इस आयोजन की चर्चा नहीं की थी। उनके पुत्र भूषण ने जब अपने मित्रों-सहयोगियों से यशोधर बाबू का परिचय करवाया तो उस समय उन्होंने प्रयास किया कि भले ही वे संस्कारी कुमाऊँनी हैं तथापि विलायती रीति-रिवाज भी अच्छी तरह परिचित होने का एहसास कराएँ।
बच्चों के आग्रह पर यशोधर बाबू अपनी शादी की सालगिरह पर केक काटने के स्थान पर जाकर खड़े हो गए। फिर बेटी के कहने पर उन्होंने केक भी काटा, जबकि उन्होंने कहा-‘समहाउ आई डोंट लाइक आल दिस।” परंतु उन्होंने केक नहीं खाया क्योंकि इसमें अंडा होता है। अधिक आग्रह पर उन्होंने संध्या न करने का बहाना किया तथा पूजा में चले गए। आज उन्होंने पूजा में देर लगाई ताकि अधिकतर मेहमान चले जाएँ। यहाँ भी उन्हें किशन दा दिखाई दिए। उन्होंने पूछा कि ‘जो हुआ होगा’ से आप कैसे मर गए? किशन दा कह रहे थे कि भाऊ सभी जन इसी ‘जो हुआ होगा’ से मरते हैं चाहे वह गृहस्थ हो या ब्रहमचारी, अमीर हो या गरीब। शुरू और आखिर में सब अकेले ही होते हैं।
यशोधर बाबू को लगता है कि किशन दा आज भी उनका मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं और यह बताने में भी कि मेरे बीवी-बच्चे जो कुछ भी कर रहे हैं, उनके विषय में मेरा रवैया क्या होना चाहिए? किशन दा अकेलेपन का राग अलाप रहे थे। उनका मानना था कि यह सब माया है। जो भूषण आज इतना उछल रहा है, वह भी किसी दिन इतना ही अकेला और असहाय अनुभव करेगा, जितना कि आज तू कर रहा है।
इस बीच यशोधर की पत्नी ने वहाँ आकर झिड़कते हुए पूछा कि आज पूजा में ही बैठे रहोगे। मेहमानों के जाने की बात सुनकर वे लाल गमछे में ही बैठक में चले गए। बच्चे इस परंपरा के सख्त खिलाफ़ थे। उनकी बेटी इस बात पर बहुत झल्लाई। टेबल पर रखे प्रेजेंट खोलने की बात कही। भूषण उनको खोलता है कि यह ऊनी ड्रेसिंग गाउन है। सुबह दूध लाने के समय आप फटा हुआ पुलोवर पहनकर चले जाते हैं, वह बुरा लगता है। बेटी पिता का पाजामा-कुर्ता उठा लाई कि इसे पहनकर गाउन पहनें। बच्चों के आग्रह पर वे गाउन पहन लेते हैं। उनकी आँखों की कोर में जरा-सी नमी चमक गई। यह कहना कठिन है कि उनको भूषण की यह बात चुभ गई कि आप इसे पहनकर दूध लेने जाया करें। वह स्वयं दूध लाने की बात नहीं कर रहा।