► परिचय
तो क्या आज भोग-विलास से भरपूर युग में मन, वचन, काया से पूर्णतः ब्रह्मचर्य का पालन संभव है? उनका उत्तर बहुत से लोग ‘‘ना’’ में देंगे किन्तु मेरी दृष्टि से प्राचीन आचार्य व महर्षियों द्वारा निर्दिष्ट ब्रह्मचर्य की नौ बाड अर्थात् नियम या मर्यादाओं का यथार्थ रुप से पूर्णतया पालन किया जाय तो ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालन सरल व स्वाभाविक हो सकता है|
► स्त्री पुरुष व नपंसक से मुक्त आवास में रहना
प्रत्येक जीव में सूक्ष्मस्तर पर विद्युद्शक्ति होती है| उदाहरण के रुप में समुद्र में इलेक्ट्रिक इल नामक मछली होती है| उसके विद्युद्प्रवाह का हमें अनुभव होता है| जहॉं विधुद्शक्ति होती है वहॉं चंबुकीय शक्ति भी होती है| इस प्रकार हम सब में जैविक विधुद्चुंबकीय शक्ति है| अतः सब को अपना विधुद्चंबुकीय क्षेत्र भी होता है| चुंबकत्व के नियम के अनुसार पास में आये हुए समान ध्रुवों के बीच अपाकर्षण और असमान ध्रुवों के बीच आकर्षण होता है| स्त्री व पुरुष में चुंबकीय ध्रुव परस्पर विरुद्ध होते हैं अतः उन दोनों के बीच आकर्षण होता है| अतः ब्रह्मचर्य के पालन करने वाले पुरुष को स्त्री, नपुंसक व पशु-पक्षी रहित स्थान में रहना चाहिये|
► बातों का त्याग करना
जब अकेला पुरुष अकेली स्त्री से बात करता है तब दोनों परस्पर एक दूसरे के सामने देखते हैं और ऊपर बताए उसी प्रकार स्त्री व पुरुष में चुंबकीय ध्रुव परस्पर विरुद्ध होने से परस्पर सामने देखने से दोनों की आँखों में से निकलती हुयी चुंबकीय रेखाएँ एक हो जाने से चुंबकीय क्षेत्र भी एक हो जाता है| परिणामतः चुंदकीय आकर्षण बढ जाता है और यदि विद्युद्प्रवाह का चक्र पूरा हो जाय तो दोनों की बीच तीव्र आकर्षण पैदा होता है| परिणामतः संयमी पुरुष का पतन होता है|
► स्त्री द्वारा पुरुष के और पुरुष द्वारा स्त्री के नेत्र
स्त्री द्वारा पुरुष के और पुरुष द्वारा स्त्री के नेत्र, मुख इत्यादि अंगों को स्थिर दृष्टि से नहीं देखना जैन दर्शन की धारणा के अनुसार, चुंबकीय क्षेत्र मनो वर्गानना (सामग्री के कणों के परमाणु इकाइयों) द्वारा गठित है जो ज्ञानेंद्रिय द्वारा उत्सर्जित, मस्तिष्क के रूप में सामग्री के कणों से बना है| जब एक आदमी एक विशेष वस्तु और व्यक्ति या एक विशेष दिशा में देखता हैं, तो उसका चुंबकीय क्षेत्र उस विशेष वस्तु या व्यक्ति तक ही फैला हुआ होता है| बेशक, गणितीय, किसी भी जीवित या निर्जीव का चुंबकीय क्षेत्र अनंत दूरी तक फैला होता हैं लेकिन यह बहुत दूर की वस्तुओं पर कम प्रभावित होता है| जब एक आदमी एक औरत के साथ कामुक सुख के बारे में सोचता है, उसका दिमाग महिला के मन को आकर्षित करता है और एक दूसरे के मन के विचार आकर्षण पैदा करते हैं| उनके मन एकजुट हो जाते है, जैव विद्युत वर्तमान का सर्किट पूरा हो जाता है, दुराचार अनजाने में और अदृश्य में प्रतिबद्ध होता है और ब्रह्मचर्य का मानसिक उल्लंघन होता हैं|
► स्त्री के साथ पुरुष
स्त्री के साथ पुरुष को एक आसन ऊपर नहीं बैठना और स्त्री द्वारा उपयोग किये गये आसन पर पुरुष को दो घडी / ४८ मिनिट तथा पुरुष द्वारा उपयोग किये गये आसन पर स्त्री को एक प्रहर-तीन घंटे तक नहीं बैठना चाहिये – कोई भी मनुष्य किसी भी स्थान पर बैठता है उसी समय उसके शरीर के इर्दगिर्ड उसके विचार के आधार पर अच्छा या दूषित एक वातावरण बन जाता है | उसके अलावा जहॉं कहीं बैठे हुये स्त्री या पुरुष के शरीर में से सूक्ष्म परमाणु उत्सर्जित होते रहते हैं | उसी परमाणु का कोई बुरा प्रभाव हमारे चित्त पर न हो इस कारण से ही ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ में इसी नियम का समावेश किया गया है|
► पूर्व की गृहस्थावास
पूर्व की गृहस्थावास में की गई कामक्रीडा के स्मरण का त्याग करना|
► प्रणीत आहार अर्थात् अतिस्निग्ध, पौष्टिक, तामसिक, विकारक आहार का त्याग करना
सामान्यतः साधु को दूध, दही, घी, गुड, सक्कर, तेल, पक्वान्न, मिठाई का आहार करने की मनाई की गयी है क्योंकि ये सभी पदार्थ शरीर में विकार पैदा करने में समर्थ हैं| किन्तु जो साधु निरंतर साधना, अभ्यास, अध्ययन, अध्यापन इत्यादि करते हैं या शरीर से अशक्त हों तो इन सब में से कोई पदार्थ गुरु की आज्ञा से ले सकता है| यदि शरीर को आवश्यकता से ज्यादा शक्ति मिले तो भी विकार पैदा होता है| अतः ब्रह्मचर्य के पालन के लिये अतिस्निग्ध, पौष्टिक या तामसिक आहार का त्याग करना चाहिये|
► रुक्ष अर्थात् लुख्खा, सुक्का आहार भी ज्यादा प्रमाण में नहीं लेना
जैसे अतिस्निग्ध, पौष्टिक, तामसिक, विकारक आहार का त्याग करना चाहिए ठीक उसी तरह रुख्खा सुखा आहार भी ज्यादा प्रमाण में लेने पर भी शरीर में विकार व जडता पैदा करता है| अतएव ऐसा रुक्ष आहार भी मर्यादित प्रमाण में लेना चाहिये|
► स्नान विलेपन का त्याग करना
केश, रोम, नख इत्यादि को आकर्षक व कलात्मक ढंग से नहीं काटना| स्नान विलेपन का त्याग करना| शरीर को सुशोभित नहीं करना – यह सारी चीजों का विलेपन करना ब्रह्मचारी के लिये निषिद्ध है क्योंकि ब्रह्मचारीओं का व्यक्तित्व ही स्वभावतः तेजस्वी – ओजस्वी होता है| अतः उनकों स्नान-विलेपन करने की आवश्यकता नहीं है| यदि वे स्नान-विलेपन इत्यादि करें तो ज्यादा देदीप्यमान बनने से अन्य व्यक्ति के लिये आकर्षण का केन्द्र बनते हैं| परिणामतः क्वचित् अशुभ विचार द्वारा विजातिय व्यक्ति का मन का चुंबकीय क्षेत्र मलीन होने पर उसके संपर्क में आने वाले साधु का मन भी मलीन होने में देर नहीं लगती| अतएव साधु को शरीर अलंकृत नहीं करना चाहिये या स्नान-विलेपन नहीं करना चाहिये|