self control

आत्मसंयम – ब्रह्मचर्य विज्ञान | Self-control – brahmacharya vigyan

 

जिसने जीभ को नहीं जीता वह विषय वासना को नहीं जीत सकता। मन में सदा यह भाव रखें कि हम केवल शरीर के पोषण के लिए ही खाते हें, स्वाद के लिए नहीं। जैसे पानी प्यास बुझाने के लिए ही पीते है, वैसे ही अन्न केवल भूख मिटाने के लिए ही खाना चाहिए। हमारे माँ-बाप बचपन से ही हमें इसकी उलटी आदत डालते हैं। हमारे पोषण के लिए नहीं बल्कि अपना अंधा प्यार दिखाने के लिए हमे तरह तरह के स्वाद चखाकर हमें बिगाड़ते हैं।

विषय-वासना को जीतने का रामबाण उपाय रामनाम या ऐसा कोई और मंत्र है। मुझे बचपन से रामनाम जपना सिखाया गया था, उसका सहारा मुझे मिलता ही रहता है। जप करते समय भले ही हमारे मन में दूसरे विचार आया करते हैं फिर भी जो श्रद्धा रखकर मंत्र का जप करता ही जायेगा उसे अंत में विघ्नों पर विजय अवश्य मिलेगी। इसमें मुझे तनिक भी सन्देह भी नहीं है कि यह मंत्र उसके जीवन की डोर बनेगा और उसे सभी संकटों से उबारेगा। इन मंत्रों का चमत्कार हमारी नीति की रक्षा करने में है और ऐसा अनुभव हर एक प्रयत्न करने वाली को थोड़े ही दिनों में हो जायेगा। इतना याद रहे कि मंत्र तोते की तरह रटा न जाये। उसे ज्ञानपूर्वक जपना चाहिए। अवांछित विचारों के निवारण की भावना और मंत्रशक्ति में विश्वास रखकर जो जीभ को वश में रखेगा, ब्रह्मचर्य उसके लिए आसान से आसान चीज हो जायेगा। प्राणीशास्त्र का अध्ययन करने वाले कहते हैं कि पशु ब्रह्मचर्य का जितना पालन करता है मनुष्य उतना नहीं करता। हम इसके कारण की खोज करें तो देखेंगे कि पशु अपनी जीभ पर काबू रखता है, इरादा और कोशिश करके नहीं बल्कि स्वभाव से ही। वह जीने के लिए खाता है, खाने के लिए नहीं जीता पर हमारा रास्ता तो इसका उलटा ही है। माँ बच्चे को तरह-तरह से स्वाद चखाती है, वह मानती है कि अधिक से अधिक चीजें खिलाना ही उसे प्यार करने का तरीका है। माँ बाप हमारे शरीर को कपड़ों से ढकते हैं, कपड़ों से हमें लाद देते हैं, हमें सजाते-संवारते हैं, पर हम समझें कि कपड़े बदल को ढकने के लिए है, उसे सर्दी-गर्मी से बचाने के लिए हैं, सजाने के लिए नहीं तो हम इससे कहीं अधिक सुन्दर बन सकते हैं। स्वाद भूख से रहता है। भूखे को सूखी रोटी में जो स्वाद मिलता है वह तृप्त को लड्डू में नहीं मिलता। हम तो पेट में ठूँस-ठूँसकर भरने के लिए तरह-तरह के मसाले काम में लाते है और विविध व्यंजन बनाते है फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य टिकता नहीं। जो आँखें ईश्वर ने हमें अपना स्वरूप देखने के लिए दी हैं उन्हें हम मलीन करते हैं। अश्लील उपन्यास, कुसाहित्य, अश्लील दृश्य, सिनेमा आदि देखने में लगाते हैं। जो देखने की चीजें हैं उन्हें देखने की रूचि नहीं है। शबरी भीलन ने जो देखा, मीरा ने जो देखा, ध्रुव-प्रह्लाद, सुलभा ने जो देखा, महारानी मदालसा ने जो देखा और अपनी संतानों को दिखाया वह यदि आज का मानव देख ले तो स्वर्ग, वैकुंठ आदि कल्पना का विषम नहीं रहेगा बल्कि यहीं अभी स्वर्गीय सुख का उपभोग कर सकता है।

ईश्वर जैसा कुशल सूत्रधार दूसरा कोई नही मिल सकता और न आकाश से अच्छी दूसरी रंगशाला मिल सकती है, पर कौन माता बच्चे की आँखें धोकर उसे आकाश के दर्शन कराती है ? बच्चे की प्रथम पाठशाला घर ही है। आजकल घरों में बच्चों को जाने-अनजाने जो शिक्षा मिल रही है वह उसके तथा माता-पिता के भविष्य व राष्ट्र के लिए कितना घातक है। यह विचारणीय है। देश के बुद्धिजीवियों व कर्णधारों को गंभीरतापूर्वक इस विषय पर विचार करना चाहिए।

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