चारों ओर शोर गुल मच रहा था। देश के चारो दिशाओं से लोग भागे चले आ रहे थे। ऋषि बाजश्रवस यज्ञ का आयोजन किये थे। बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ हो रहा था। इस यज्ञ में ऋषि अपनी सारी धन-सम्पत्ति दान करने वाले थे।
तपोवन के एक किनारे पर्याप्त लम्बे-चौड़े भूखण्ड पर यज्ञ मण्डप बनाया गया था। बहुत से ऋषि-मुनि आये हैं, बड़े-बड़े पण्डितगण आये हैं। यज्ञ प्रारम्भ हो चुका है, होमाग्नि में आहूति दी जा रही है। दान भी शुरू हुआ है। विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का दान हो जाने के बाद, गऊ-दान शुरू हुआ है। बाजश्रवस बहुत सारे गौओं को दान में देने जा रहे हैं। सभी लोग आनन्द में विभोर हैं, केवल एक लड़के के चेहरे पर हँसी नहीं है, उत्सव का आनन्द नहीं है।
कुम्हलाये हुए गम्भीर चेहरे को लेकर वह लड़का एक कोने में खड़े खड़े गऊ -दान देख रहा था। वह लड़का बाजश्रवस ऋषि का पुत्र नचिकेता था। उसके किशोर मन में आज तूफान उठ रहा था; सोचता जा रहा था- ” दान देना बहुत पुण्य का काम है, मेरे पिताजी यह सोच कर गौएँ दान कर रहे हैं, कि जिनको दे रहे हैं, उनका भला
होगा। इसीलिए तो दान की इतनी महिमा है, जिन व्यक्तियों को पैसे से गाय खरीद कर दूध पीने या अपने बच्चों को दूध पिलाने का सामर्थ्य नहीं है, एक गाय दान में मिल जाने से उनका कितना भला होगा, किन्तु उसके पिता के गौशाले में जितनी खराब गायें थीं, उन्हीं को चुन चुन कर वे दान देने के लिए ले आये थे। ऐसी ऐसी गायें थीं, जो बिल्कुल दुबली पतली और बूढ़ी हो चुकी थीं, जिनके चेहरे को देखने से ही वितृष्णा हो जाती है। उनको देखने से ऐसा लगता था, मानों इस जन्म में उनका घास खाना और जल पीना समाप्त हो चूका था, यज्ञशाला से घर जाने के रस्ते में ही लगता है, वे सब मर जायेंगी, मानों मृत्यू के पथ पर उनका पैर बढ़ चुका है। गौशाले में तो कितनी सारी अच्छी अच्छी गायें भरी पड़ी हैं, उन गायों को पिताजी क्यों नहीं लाये हैं ? जिस उद्देश्य से वे दूसरों को गायों को दान में दे रहे हैं, क्या ऐसी गायों को दान में देने से उनका वह उद्देश्य सिद्ध होगा ? बल्कि इससे तो उन्हें बिलकुल उल्टा फल मिलेगा। “
झुंझलाहट से उसका बाल-मन भर गया। किन्तु वह तो एक बच्चा था, इसका प्रतिरोध कैसे करे ? अपने पिता के पास जाकर स्वाभिमान भरे लहजे से पूछा -‘ पिताजी, आप मुझको किसे दान में दे रहे हैं ? ‘ अपने छोटे से लड़के की अर्थहीन बातों पर ध्यान दे सकें, ऋषि के पास उतना समय कहाँ था ? किन्तु नचिकेता ने भी जिद नहीं छोड़ा, बार बार उनके पास जाकर यही प्रश्न पूछता रहा। उसको रोकने के लिए बाजश्रवस ने क्रूद्ध होकर कह दिया, ” जाओ, मैं तुमको यम के हाथों में दिया। “
उत्तर सुन कर थोड़ी देर तक नचिकेता किसी पत्थर की मूर्ति के समान खड़ा रह गया। सोचने लगा, ” पिताजी ने ऐसा कैसे कह दिया; क्या मुझे वे इतना अवांछनीय समझते हैं? क्या मैं इतना अयोग्य लड़का हूँ ? मनुष्य के रूप में क्या मेरा कोई मूल्य ही नहीं है ? ” आत्मनिरीक्षण करने लगा, उसने पाया कि यह सत्य नहीं है – ” बहुतों से मैं बड़ा हूँ, बहुतों की तुलना में मध्यम हूँ, किन्तु मेरे पिताजी के जितने भी शिष्य हैं, मैं उनमें से सबसे निकृष्ट तो बिलकुल नहीं हूँ।” स्वयं के उपर श्रद्धा जाग्रत हो गयी, और आत्मविश्वास से उसका हृदय भर उठा। साथ ही साथ उसने अपना कर्तव्य भी निश्चित कर लिया।- ” मैं यमराज के बहुत से कार्यों में उपयोगी हो सकता हूँ। “
ऐसा सोच कर उसने मन में ठान लिया, कि अब तो मुझे यमराज के पास जाना ही होगा ! फिर अपने पिता के पास जाकर नचिकेता ने अपना संकल्प सुना दिया। यह सुनकर बाजश्रवस चौंक गए। अरे, मैंने अनजाने में कोई बात कह दी तो उससे क्या हुआ ? अपने पुत्र को यमलोक भेजना क्या किसी पिता की आंतरिक इच्छा हो सकती है ? किन्तु नचिकेता ने अपने पिता को समझाया कि सत्य की रक्षा करना उनका अनिवार्य कर्तव्य है। एक बार जब उनके मुंह से यह बात निकल ही गयी है, तो फिर मन में चाहे कितना भी कष्ट क्यों न हो, उनके लिए नचिकेता को यमपुरी जाने की अनुमति प्रदान करना ही उचित है। मनुष्य का जीवन है ही कितने दिनों का ? जिस शरीर के माध्यम से हमलोग पृथ्वी का रूप-रस आदि भोग करते हैं, उसका मरना तो ध्रुव तारे के समान अटल है। किन्तु सत्य की रक्षा कर पाने से उसका शुभ फल शरीर नष्ट होने के बाद भी हमलोगों के साथ साथ जाता है, तथा अगले जीवन में भी उसका शुभ फल प्राप्त होता है।