ज्योतिष और रोग का सम्बन्ध
आज विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली हैं।। सूक्ष्म से सूक्ष्म रोग को मशीन द्वारा पहचान लिया जाता हैं। परंतु फिर भी कई रोग एंव लक्षण आज भी रहस्य बने हुये हैं।। ज्योतिष शास्त्र द्वारा समस्त रोग पूर्व से ही जाने समझे जा सकते हैं, तथा उनका निदान किया जा सकता हैं।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं।
मनुष्य का जन्म ग्रहों की शक्ति के मिश्रण से होता है. यदि यह मिश्रण उचित मात्रा में न हो अर्थात किसी तत्व की न्यूनाधिकता हो तो ही शरीर में विभिन्न प्रकार के रोगों का जन्म होता है. शरीर के समस्त अव्यवों,क्रियाकलापों का संचालन करने वाले सूर्यादि यही नवग्रह हैं तो जब भी शरीर में किसी ग्रह प्रदत तत्व की कमी या अधिकता हो, तो व्यक्ति को किसी रोग-व्याधि का सामना करना पडता है. यूँ तो स्वस्थता,अस्वस्थता एक स्वाभाविक विषय है. परन्तु यदि किसी प्रकार का कोई भयानक रोग उत्पन हो जाए तो वह उस रोगग्रस्त प्राणी के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त कुटुम्बीजनों के लिए दु:खदायी हो जाता है.
इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व 12वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। लग्न में स्थित राशि व इनसे संबंधित ग्रह किस प्रकार व किस अंग को पी़डा प्रदान करते हैं, आइए अब इसके बारे में जानते हैं…
यह तो सर्वविदित है कि मानवी सृ्ष्टि पंचभौतिक है और पंचभूतों (जल,अग्नि,वायु,पृ्थ्वी,आकाश) के गुण तथा प्रभाव से ही यह सर्वदा प्रभावित होती है। इन्ही पंचतत्वों का अन्तर्जाल कहीं पर सूक्ष्म तो कहीं पर स्थूल रूप से प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप में विद्यमान रहता है। इनकी विशेषता यह भी है कि परस्पर सजातीय आकर्षण के साथ ही विजातीय सश्लेषण में विशिष्ट गुणों की उत्पत्ति भी देखी जाती है।
यदि जन्म पत्रिका में लग्र, सूर्य, चंद्र के चक्र बिंदुओ से शरीर के बाहरी, भीतरी रोग को आसानी से समझा जा सकता है। लग्र बाहर के रोगो का, तथा सूर्य भीतर के रोग, तेज, प्रकृति का तथा चंद्रमा मन उदर का प्रतिनिधी होता है।इन तीनों ग्रहों का अन्य ग्रहों से पारस्परिक संबध या शत्रुता ही शरीर के विभिन्न रोगो को जन्म देती है। जन्म पत्रिका का षष्ठ भाव रोग का स्थान होता है। शरीर में कब, कहां, कौन सा रोग होगा वह इसी से निर्धारित होता है। यहां पर स्थित क्रूर ग्रह पीड़ा उतपन्न करता है। उस पर यदि शुभ ग्रहो की दृष्टि न हो तो यह अधिक कष्टकारी हो जाता
ग्रह,नक्षत्र,तारे,वनस्पतियाँ,नदी,पर्वत,समस्त जीव जन्तु इत्यादि इन्ही पंचभूतों से निर्मित हुए हैं। वैदिक ज्योतिष की बात की जाए तो इसके आधार में “यथा पिंण्डे तथा ब्राह्मंडे” का यही एक सूत्र काम करता है। इसी आधार पर ग्रहों एवं नक्षत्रों से पृ्थ्वी पर उपस्थित प्राणियों के साथ आन्तरिक संबंध निरूपित होते हैं। अन्य पिण्डों के सापेक्ष सौरमंडल के पिण्डों का आपस में इतने निकट का सम्बंध है , जिस प्रकार से की एक मोहल्ले में बने हुए घरों का परस्पर सम्बंध एवं प्रभाव होता है।
इन ग्रह पिण्डों का पृ्थ्वी पर विद्यमान समस्त जड चेतन पदार्थों पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा युगों पहले ही ज्ञात कर लिया गया था। केवलमात्र स्थूल प्रभाव ही नहीं अपितु उनके सूक्ष्मतम प्रभाव के सम्यक विवेचन का नाम ही वैदिक ज्योतिष है।