परिचय
जीवन की वास्तविक सफलता और समृद्घि आत्मभाव में जागृत रहने में है। जब मनुष्य, अपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा और अभिरूचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है, जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। मनुष्य परोपकार, परमार्थ, सेवा, सहायता, दान, उदारता, त्याग, तप से भरे हुए पुण्य कर्म करता है।
तो हृदय के भीतरी कोने में बड़ा ही सन्तोष, हलकापन, आनन्द एवं उल्लास उठता है। इसका अर्थ है कि यह पुण्य कर्म आत्मा के स्वार्थ के अनुकूल है। वह ऐसे ही कार्यों को पसंद करता है। आत्मा की आवाज सुनने वाले और उसी की आवाज पर चलने वाले सदा पुण्य कर्मों होते हैं।
► आत्मा को लोक और परलोक में कष्ट मिलता है
आत्मा को तात्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। शरीर की मृत्यु होने के उपरान्त जीव की सद्गति मिलने में भी हेतु सत्कर्म ही हैं। लोक और परलोक में आत्मिक सुख शान्ति सत्कर्मो के ऊपर ही निर्भर है। इसलिए आत्मा का स्वार्थ पुण्य प्रयोजन में है।
शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है। इन्द्रियां और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस कार्य प्रणाली को अपनाने से मनुष्य नाशवान शरीर की इच्छाएं पूर्ण करने में जीवन को खर्च करता है और पापों का भार इकट्ठा करता रहता है।
इससे शरीर और मन का अभिरंजन तो होता है, पर आत्मा को इस लोक और परलोक में कष्ट उठाना पड़ता है। आत्मा के स्वार्थ के सत्कर्मों में शरीर को भी कठिनाइयाँ उठानी पड़ती हैं। तप, त्याग, संयम, ब्रह्मचर्य, सेवा, दान आदि के कार्यों में शरीर को कसा जाता है। तब ये सत्कर्म सधते हैं।
► आत्मा के सुख की परवाह नहीं करते
इस प्रकार हम देखते हैं कि शरीर के स्वार्थ और आत्मा के स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाते, एक के सुख में दूसरे का दु:ख होता है। दोनों के स्वार्थ आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं। इन दो विरोधी तत्वों में से हमें एक को चुनना होता है। जो व्यक्ति अपने आपको शरीर समझते हैं, वे आत्मा के सुख की परवाह नहीं करते और शरीर सुख के लिए भौतिक सम्पदाएं, भोग सामग्रियां एकत्रित करने में ही सारा जीवन व्यतीत करते हैं।
ऐसे लोगों का जीवन पशुवत् पाप रूप, निकृष्ट प्रकार का हो जाता है। धर्म, ईश्वर, सदाचार, परलोक, पुण्य, परमार्थ की चर्चा वे भले ही करें, पर यथार्थ में उनका पुण्य परलोक स्वार्थ साधन की ही चारदीवारी के अन्दर होता है। यश के लिए, अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए, दूसरों पर अपना सिक्का जमाने के लिए वे धर्म का कभी-कभी आश्रय ले लेते हैं।
► तब मनुष्य खुद को आत्मा मानने लगता है
वैसे उनकी मन:स्थिति सदैव शरीर से सम्बन्ध रखने वाले स्वार्थ साधनों में ही निमग्न रहती है। परन्तु जब मनुष्य आत्मा के स्वार्थ को स्वीकार कर लेता है, तो उसकी अवस्था विलक्षण एवं विपरीत हो जाती है। भोग और ऐश्वर्य के प्रयत्न उसे बालकों की खिलवाड़ जैसे प्रतीत होते हैं।
शरीर जो वास्तव में आत्मा का एक वस्त्र या औजार मात्र है, इतना महत्वपूर्ण उसे दृष्टिगोचर नहीं होता है कि उसी के ऐश-आराम में जीवन जैसे बहुमूल्य तत्व को बर्बाद कर दिया जाय। आत्म भाव में जगा हुआ मनुष्य अपने आपको आत्मा मानता है और आत्मकल्याण के, आत्म सुख के कार्यों में ही अभिरुचि रखता और प्रयत्नशील रहता है।
उसे धर्म संचय के कार्यों में अपने समय की एक-एक घड़ी लगाने की लगन लगी रहती है। इस प्रकार शरीर भावी व्यक्ति अपना जीवन पाप की ओर, पशुत्व की ओर चलता है और आत्मभावी व्यक्ति का प्रवाह पुण्य की ओर, देवत्व की ओर प्रवाहित होता है।