कठपुतलियों का खेल कितना प्यारा लगता है. नाचती, गाती, लड़ती झगड़ती, बात करती हुई कठपुतलियां, उनकी डोर को थामकर रखने वालों के हाथों का तिलस्मी खेल होता है. तिलस्मी इसलिए कहा क्योंकि देखने वालों को तो वो हाथ दिखाई नहीं देते, जिनके द्वारा कठपुतलियों में जान आ जाती है. हाँ कुछ पतली डोरियाँ ज़रूर दिखाई देती हैं, जो ऊपर की ओर जाती हैं, फिर परदे के पीछे गायब हो जाती हैं. ये एहसास भर बना रहता है कि कोई है जो उनको थामे हुए है, कौन है? दर्शकों को नहीं पता.
कुछ कठपुतलियों में जब साँसे आ जाती है, डोरियाँ और महीन हो जाती हैं, इतनी महीन की दिखाई भी नहीं देती, तो कठपुतलियों को यह भ्रम होने लगता है कि उनके अंदर जो हरकत हो रही है वह उनके बस में हैं. वह उनकी डोरियों को थामकर रखने वाले हाथों के अस्तित्व को भी नकारने लगती है. लेकिन सिर्फ ऐसा मान लेने से सच बदल तो नहीं जाता ना? डोरियाँ तो फिर भी उन्हीं हाथों में हैं ना? हम कितनी भी उठापटक कर लें, कितनी भी भागा-दौड़ी कर लें, कितना भी हम मान लें की जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह हमारे द्वारा ही हो रहा है, तो इससे सच्चाई बदल तो नहीं जाती न? हमें जाना तो वहीं होता है जहां वो हाथ ले जाए, जिसके पास सारी डोरियों के सिरे खुलते हैं. हम कितना भी मान लें कि हम कर रहे हैं, लेकिन इससे उसकी योजना में कोई परिवर्तन नहीं आता, उसे तो वही दिखाना होता है, जो उसने तय कर रखा है.
लेकिन बहुत कम लोग जीवन के इस रहस्य को समझ पाते हैं. जो लोग थोड़ा-सा भी इसको समझने की योग्यता हासिल कर लेते हैं वो धीरे धीरे उन डोरियों को पकड़ कर ऊपर की ओर यात्रा शुरू कर देते हैं. और इस ऊपर की ओर की यात्रा को ही हम सत्य के मार्ग पर चलना या परमात्मा के मार्ग पर चलना कहते हैं. उन्हीं कुछ खुशक़िस्मतों में से एक थे गुरुदत्त.
परमात्मा के मार्ग पर चलने की यह योग्यता व्यक्ति किसी एक जन्म में तथाकथित नैतिक कार्य करके हासिल नहीं करता बल्कि पिछले कई जन्मों के कर्मों के फलस्वरूप यह योग्यता प्राप्त होती है. इसका उल्लेख करते हुए गुरुदत्त ने अपनी पुस्तक भाग्यचक्र में लिखा है कि जब किसी पुरोहित ने उन्हें बताया कि वे स्वाधीनता संग्राम पर आधारित प्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ के रचयिता बंकिमचन्द्र का पूर्वजन्म हैं तो उन्होंने उस पर शोध आरम्भ कर दिया जिससे पता चला की दोनों की आत्मा पर हिन्दू शास्त्रों के संस्कार और शास्त्र -बुद्धि में समानता के गुण है. उन्हीं दिनों गुरुदत्त सांख्य दर्शन पर भाष्य लिख रहे थे जिसका उल्लेख करते हुए गुरुदत्त कहते हैं – सांख्य दर्शन में कहा है की शुक्राणु और डिम्ब के संयोग के उपरान्त कुछ काल तक माता के गर्भ में भ्रूण का निर्माण माता पिता से प्राप्त संयोग से चलता रहता है. बाद में भ्रूण में जीवात्मा तथा परमात्मा के प्राण आने से नई शक्ति से निर्माण कार्य चलने लगता है. अभिप्राय यह है कि जीवन के प्रवेश से पहले नया शरीर बनाना आरम्भ होना चाहिए.
श्री बंकिम चन्द्र का निधन 8 अप्रेल 1894 में हो गया था और मेरा जन्म हुआ था 8 दिसंबर 1894 के दिन. दोनों तिथियों में 244 दिन का अंतर है. स्त्री में गर्भ स्थिति से पूर्व के मासिक धर्म की तिथि से 282 दिन में बालक का जन्म होता है. यह कहा नहीं जा सकता की स्त्री के रजस्वला होने के कितने दिन उपरांत बीजारोपण होता है. और कितने दिन का भ्रूण होने पर जीवात्मा का उसमें प्रवेश होता है. यह काल भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न होता है. यह माता की शारीरिक अवस्था तथा भोजन व्यवस्था पर निर्भर करता है. यदि भागवत गीता का कथन स्वीकार किया जाए तो एक सवा माह का भ्रूण होना चाहिए. जब जीवात्मा आकर उसमें निवास कर सकती है.
श्री बंकिम के निधन तथा मेरे जन्म में 244 का दिन का अंतर बनता है और यदि इसे स्वीकार किया जाए की उस महान लेखक की आत्मा इस शरीर में विद्यमान है तो यह मानना पड़ेगा कि यह आत्मा मेरी माताजी की गर्भ स्थति के 38 दिन उपरान्त ही उनके गर्भ में प्रविष्ठ हुआ था.
मैं किसकी आत्मा हूँ और किसकी नहीं यह विचारणीय नहीं है विचारणीय यह है कि मैं क्या हू. और क्यों हूँ.
जिसके भी मन में यह सवाल उत्पन्न हो जाए की मैं क्या हूँ और क्यों हूँ तो इस सवाल का उत्तर खोजने की यात्रा पर निकलने से पहले गुरुदत्त का यह उपन्यास एक बार अवश्य पढिएगा. क्योंकि गुरुदत्त ने अपने जीवन में हुई घटनाओं के समयानुसार इस तरह के क्रम से लिखा है कि आपको लगेगा जैसे गुरुदत्त अपने जीवन के संस्मरण नहीं कोई सुनियोजित योजना की पांडुलिपी तैयार कर रहे हैं. आपको अनुभव होगा की यह घटना जैसे घटित नहीं हो चुकी वरन गुरुदत्त अपने या किसी अन्य के जीवन में घटने वाली घटनाओं की रूपरेखा तैयार कर रहे हैं.
लेकिन उपन्यास पढ़ते समय आपको विदित होगा कि हमारे जीवन में ही ऐसी कई घटनाएं होती है जो जीवन का टर्निंग पॉइंट हो सकती है और कई घटनाएं ऐसी भी होती है जिन पर हमारी नज़र नहीं जाती लेकिन जब उनका पुनः अवलोकन किया जाए तो चमत्कार से कम नहीं लगेगी. गुरुदत्त के शब्दों में-
मेरा ध्यान इन घटनाओं की ओर गया तो फिर मैं अपने पूर्व जीवन पर अवलोकन करने लगा. जब एक बार इस दिशा में अवलोकन करना आरम्भ हुआ तो फिर ऐसा दिखाई दिया कि जीवन की आधी से अधिक घटनाएं इस भाग्य चक्र के अंतर्गत है. जीवन की शेष घटनाएं तो सामान्य रोटी कपड़ा मकान उलब्ध कराने का प्रयास मात्र है.
गुरुदत्त द्वारा लिखित भाग्यचक्र उनके जीवन के उन्हीं संस्मरणों का संकलन है जो परमात्मा द्वारा उनके लिए लिखा गया था. उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी आत्मा ने किस शरीर में प्रवेश किया होगा यह तो अभी तक ज्ञात नहीं है लेकिन यदि गुरुदत्त ने दोबारा जन्म ले लिया है तो हमें इसी सदी में बंकिम चन्द्र और गुरुदत्त के बाद एक और महान रचनाकार का सौभाग्य प्राप्त होगा.