wedding ceremony

विवाह संस्कार – ब्रह्मचर्य विज्ञान | Wedding ceremony – brahmacharya vigyan

 

विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीरादि का परिमाण यथायोग्य हो जिन युवक युवती का उनका आपस में सम्भाषण कर माता-पिता अनुमति से गृहस्थ धर्म प्रवेश विवाह है। अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत विद्या बल को प्राप्त करके, सब प्रकार के शुभगुण-कर्म-स्वभावों में तुल्य, परस्पर प्रीतियुक्त हो, विधि अनुसार सन्तानोत्पत्ति और अपने वर्णाश्रमानुकूल उत्तम कर्म करने के लिए युवक युवती का स्वचयनाधारित परिवार से जो सम्बन्ध होता है उसे विवाह कहते हैं।

गृहस्थाश्रम धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पथ ले जाता अश्व है। यह अविराम गति है, प्रशिक्षित गति है, अवीनामी विस्तरणशील है, कालवत सर्पणशील है, ज्योति है, ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थ-संन्यास इन तीनों आश्रमों की आधारवृषा है, उमंग उत्साह से पूर्ण है, वेद प्रचार केन्द्र है, शिशु के आह्लाद उछाह का केन्द्र है, परिवार सदस्यों द्वारा शुभ-गमन है, रमणीयाश्रम है, श्रेष्ठ निवास, श्रेष्ठ समर्पण, स्वाहा है यह गृहस्थाश्रम।

परिवार गृहस्थाश्रम व्यवस्था है जिसमें माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-भाई, बहन-बहन, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, भृत्य आदि सदस्य समनस्वता, सहृदयपूर्वक, एक स्नहिल बन्धन से युक्त हुए, समवेत श्रेष्ठता का सम्पादन करते, एक अग्रणी का अनुसरण करते, उदात्त संस्कृति का निर्माण करते हैं।

पति-पत्नी की वैदिक संकल्पनानुसार पति ज्ञानी, पत्नी ज्ञानी, पति सामवेद, पत्नी ऋग्वेद, पति द्युलोक, पत्नी धरालोक। पति-पत्नी दुग्ध-दुग्धवत मिलें। प्रज उत्पन्न करें।

विवाह का मूल उद्देश्य है ‘वेद-विज्ञ’ व्यक्ति ‘वेद-विद’ हो सके। वेद-विद होने का मतलब है वेद सत्ता के लिए, ज्ञान के लिए, लाभ के लिए, चेतना के लिए तथा धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष सिद्धि के लिए जीवन में उपयोग। वैदिक जीवन ब्रह्मचर्य में चतुर्वेदी होकर गृहस्थ चतुर्वेद सिद्ध करते, वानप्रस्थ में पितर यमलोकी श्रद्धामय होते, संन्यास अवस्था में इसी जीवन में ब्रह्मलयता सिद्ध ब्रह्मलयी होने का नाम है। यह जीवन एक महान् अस्तित्व पहचान योजना है। इस योजना के जीवन यथार्थ होने के अनुपात में ही मानव जीवन में सुखी होता है। इसमें विवाह केन्द्रिय आधार है। गृहस्थ आश्रम अति अधम प्रवृत्तियों से बचाता है। हिरन जैसी चंचलता वृत्ति, बैल जैसी दांत दिखाऊ वृत्ति, गाय जैसी चरन् प्रवृत्ति, कुत्ते जैसी दुमउठाऊ प्रवृत्ति और विधर्म अर्थात् धर्म के अपभ्रंश धर्म को भी घटिया रूप में जीने की प्रवृत्ति इन छै से गृहस्थाश्रम बचाता है। दुःख यह है कि विवाह संस्कार के अवमूल्यन के कारण आज के गृहस्थी विकृत संन्यासियों के ही समान इन समस्त छै दुर्गुणों को ही अपनाने की राह पर चल पड़े हैं।

आधुनिक विवाह संस्कार की महाविकृतियां:- 1) पुरुष-पुरुष स्त्री-स्त्री का विवाह, 2) स्त्री-देवमूर्ति विवाह, 3) मानव पशु विवाह, 4) नानी-पोता विवाह, 5) मानव-हिजड़ा विवाह, 6) शालीग्राम-तुलसी विवाह, 7) बालक-बालिका विवाह, आर्य समाज द्वारा पैसे के लालच में कराए जा रहे वासना विवाह, 9) पाश्चात्य में शाम विवाह सुबह तलाक सम्बन्ध, 10) दहेज विवाह, 11) आडम्बर विवाह, 12) पुरुष-राधा-कृष्ण-वर-विवाह धारणा, 13) विश्व सेक्सी पुरुष तथा नारी चयन, 14) उन्मुक्त यौन-पंच-विवाहित जोडे व्यवस्था, 16) विवाह पूर्व यौन सम्बन्ध आदि-आदि विकृतियां विवाह के स्वरूप का कचूमर निकाल दे रहे हैं। और यही कारण है कि विष्व एक आवेग की घिनौनी लहर हो गया है। इसीलिए महान् अस्तित्व पहचान संकट ग्रस्त हो गया है।

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