जो विद्वान इस विद्या के मर्म को जानते है, इसके गहन तत्वों को आत्मसात कर चुके है, वो भलीभान्ती जानते है कि इस आदिकालीन शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों-मुनियों,महर्षियों नें कहीं भी किसी ऎसे निर्दयी विधाता की सत्ता की कल्पना नहीं की,जो जैसे चाहे,जब चाहे,मनुष्य के साथ खेल खेलता रहे. इसके विपरीत यहाँ तो स्पष्ट शब्दों में घोषणा की गई है,कि इस ब्राह्मंड में घटने वाली प्रत्येक घटना एक सुनियोजित,सुनिश्चित नियम द्वारा बँधी है और वो नियम है—कर्म सिद्धान्त. इन्सान को उसके वर्तमान जीवन में जो कुछ भी मिल रहा है,कर्म के नियमों द्वारा सुनिश्चित व सुनियोजित है.एक बार कर्म करके उसका फल तो आपको मिलेगा ही. यद्यपि इन्सान कर्म करने या न करने में अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति का प्रयोग कर सकता है. किन्तु जब एक बार कर्म कर दिया गया,तो फिर उसका फल मिलने से आपको इस सृ्ष्टि की कोई ताकत नहीं रोक सकती—-स्वयं विधाता भी नहीं. उसके बाद कर्म के अनिवार्य फल से बच निकलने का कोई मार्ग नहीं है. हाँ, इन्सान अपनी स्वतन्त्रबुद्धि द्वारा फल की अनुभूति में बहुत कुछ अँशों तक तारतम्य उत्पन कर सकता है,और सतत अभ्यास एवं प्रयास द्वारा अपना भविष्य बना सकता है. एक प्रकार से कहें तो वो अपने भाग्य का सृ्जन कर सकता है.