शास्त्रों में लिखा है…………..
ॐ अर्यमा न तृप्यताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नम:।ॐ मृर्त्योमा अमृतं गमय||
अर्थात, अर्यमा पितरों के देव हैं, जो सबसे श्रेष्ठ है उन अर्यमा देव को प्रणाम करता हूँ ।
हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम है . आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें। इसका अर्थ है कि हम पूरे वर्ष भर अपने देवों को समर्पित अनेकों पर्वों का आयोजन करते हैं, लेकिन हममे से बहुत लोग यह महसूस करते है की हमारी प्रार्थना देवों तक नही पहुँच प़ा रही है। हमारे पूर्वज देवों और हमारे मध्य एक सेतु का कार्य करते हैं,और जब हमारे पितृ हमारी श्रद्धा, हमारे भाव, हमारे कर्मों से तृप्त हो जाते है हमसे संतुष्ट हो जाते है तो उनके माध्यम से उनके आशीर्वाद से देवों तक हमारी प्रार्थना बहुत ही आसानी से पहुँच जाती है और हमें मनवांछित फलों की शीघ्रता से प्राप्ति होती है ।
पित्तरों का सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण यह अपने परिजनों स्वजनों को सतर्क करती रहती है तथा तमाम कठनाइयों को दूर कराकर उन्हें सफलता भी दिलाती है। समान्यतः यह सर्वसाधारण को अपनी उपस्थिति का आभास भी नहीं देते है परन्तु उपर्युक्त मनोवृर्ति एवं व्यक्तित्व को देखकर यह उपस्थित होकर भी सहयोग एवं परामर्श देते है। पित्तरों का उद्देश्य ही अपने वंशजों को पितृवत स्नेह दुलार सहयोग एवं खुशियां प्रदान करना है संसार में तमाम उदाहरण उपलब्ध है जब इन्होंने दैवीय वरदान के रूप में मदद की है।