indrajaal chakma dene ki vidya

इन्‍द्रजाल चकमा देने की विद्या – कुछ महत्वपूर्ण Article – indrajaal chakma dene ki vidya – indrajaal ke kuch mahatvapurn article

भारतीयों को इंद्रजाल जैसी विद्या के बारे में ज्‍यादा बताने की जरूरत नहीं। हर कोई इस विद्या से परिचित मिलेगा। तंत्र, मंत्र, यंत्र और न जाने क्‍या क्‍या इसे लेकर साेच लिया जाता है। मिस्र, यूनान, माया सभ्‍यता तक इंद्रजाल की बातें वैसे ही मिलती है जैसी कि हमारे यहां गांव-गांव में मिल जाती है। काला जादू और मारण, मोहन तक को इससे जोडकर सोचा जाता है।

चाणक्‍य के अर्थशास्‍त्र का एक बडा अंश इस विद्या पर है, सोमेश्‍वर के मानसोल्‍लास में भी इंद्रजाल पर लिखा गया। उडीसा के राजा प्रतापरुद्रदेव ने तो कौतुक चिंतामणि के नाम से ऐसी विद्याओं का अजूबा संग्रह ही कर डाला। इसमें कीमियागरी से लेकर भूमिगत दफीने तक खोजने की बातों को लिखा गया है। बाद में, कौतुक रत्‍नभांडागार, आसाम बंगाल का जादू, मिस्र का जादू जैसे नामों से कितनी किताबें बाजार में आईं।

‘धर्मयुग’ हो या ‘साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान’ या फिर ‘कादम्बिनी’ और अखबार भी पीछे नहीं रहे, जिन्‍होंने तंत्र अंक निकाले। (इन ख्‍यातनाम पत्रिकाओं के इन विशेषांकों में मुझे भी कई-कई लिखने का मौका मिला)। मगर, सच ये है कि इंद्रजाल जैसी विद्या चकमा देने की विद्या रही है। खासकर अपने प्रति‍द्वंद्वियों को कैसे भरमाया जाए, उनके इरादों को कैसे नीचा दिखाया जाए, इसके लिए जो उपाय किए जाते, वे इन्‍द्रजाल के उपाय कहे गए और इस विद्या के कर्ता ऐन्‍द्रजालिक कहलाए। तुलसीदास ने लंकाकांड में रावण काे इंद्रजालकर्ता बताया है –

”इन्‍द्रजाल को कहिय न वीरा।
काटेऊ निज कर सकल सरीरा।।”

चाणक्‍य के अनुयायी कामन्‍दक ने राजनीति करने वालों और शासन में बैठने के ख्‍वाहिशमंदों के लिए खुलासा किया है कि लोगों को समूह में मूर्ख बनाना अासान नहीं है, वे बातों से नहीं मानते हैं, तर्क करते हैं, आक्रमण करते हैं, क्‍यों न उनके लिए इंद्रजाल किया जाए। अत: तरकीबें कुछ ऐसी हों कि बिना कारण ही आसमान में बादल दिखाई दें, अंधकार छा जाए, आग की बारिश होने लगे, पहाडों पर अदभुत दिखाई देने लगे, दूर स्‍थानों पर बैठी सेनाओं के समूहों में भय हो जाए, ध्‍वजाएं उडती दिखाई देने लगे, जो सामने अच्‍छा भला हो, वह देखते ही देखते छिन्‍न-भिन्‍न लगने लगे, और भी ऐसे उपाय जिनसे भयोत्‍पादन हो, इंद्रजाल कहे जाते हैं –

मेघान्‍धकार वृष्‍ट़यग्नि पर्वताद़भुत दर्शनम़।।
दूरस्‍थानानां च सैन्‍यानां दर्शनं ध्‍वजमालिनाम़।।
च्छिन्‍नपाटितभिन्‍नानां संस्रुतानां प्रदर्शनम़।
इतीन्‍द्रजालं द्विषतां भीत्‍यर्थमुपकल्‍पयेत़।।
(कामंदकीय नीतिसार 18, 53-54)

है न अद़भत विद्या, मगर ये सब चकमा देने की ही तरकीबें हैं। मगर, भारत में ये सब होता रहा है, भारत ही क्‍यों, अन्‍यत्र भी इसकी परंपरा कुछ खासियतों वाली रही है। आज इसका रूप बदलता जा रहा है और बातों के बूते पर इंद्रजाल दिखाया जा रहा है। कहां और कौन ? यह सोचकर देखियेगा।

इन्‍द्रजाल चकमा देने की विद्या – indrajaal chakma dene ki vidya – कुछ महत्वपूर्ण Article – indrajaal ke kuch mahatvapurn article

Tags: , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , , ,

Leave a Comment

Scroll to Top