हमारे देश में इंद्रजाल शब्द के अनेक अर्थ और रूप में प्राचीन काल से ही प्रचलित रहे है ! वर्तमान में इंद्रजाल शब्द के मुख्य रूप से तीन अर्थ प्रचलन में है !
प्रथम :== इंद्रजाल नामक पुस्तक के नाम से यह शब्द सर्वाधिक प्रसिद्ध है अर्थात जिस ग्रन्थ में अनेक उपयोगी सिद्धि देने वाले मंत्र – यन्त्र – तंत्र , शांतिक – वशीकरण – स्तम्भन -विदेषण -उच्चाटन – मारण आदि षट्कर्म प्रयोग विधि तथा नाना प्रकार के कौतुक व रंग आदि प्रयोजनीय वस्तुओ आश्चर्य रूप खेल , तमाशे , वैद्यक सम्बन्धी ओषधिया रसायन आदि का वर्णन हो उस शास्त्र को इंद्रजाल कहा जाता है ! अभी तक प्राय:जितने भी इंद्रजाल छपे है , उनमे एक न एक त्रुटी पायी जाती है !
द्वितीय :== इन्द्रजाल एक समुद्री पौधा है , जिसमें पत्ती नहीं होती। यह एक अमूल्य वस्तु है, इसे प्राप्त करना दुर्लभ है। इन्द्रजाल की महिमा डामरतंत्र, विश्वसार आदि ग्रंथों में पाई जाती है। इसे विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करके साफ कपड़े में लपेटकर पूजा घर में रखने से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। इसमें चमत्कारी गुण होते हैं। मान्यता है कि जिस घर में इन्द्रजाल होता है। वहां भूत-प्रेत, जादू – टोने का प्रभाव नहीं पड़ता ! इसके पूजा स्थल पर होने से घर में किसी तरह की बुरी नजर का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसकी लकड़ी को गले में पहनने से हर तरह की गुप्तशक्तियां स्वप्र में साक्षात्कार करती हैं। इन्द्रजाल के दर्शन मात्र से अनेक बाधाएं दूर होती हैं । तृतीय :== जादू का खेल भी इंद्रजाल कहलाता है। कहा जाता है, इसमें दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके उनमें भ्रांति उत्पन्न की जाती है। फिर जो ऐंद्रजालिक चाहता है वही दर्शकों को दिखाई देता है। अपनी मंत्रमाया से वह दर्शकों के वास्ते दूसरा ही संसार खड़ा कर देता है। मदारी भी बहुधा ऐसा ही काम दिखाता है, परंतु उसकी क्रियाएँ हाथ की सफाई पर निर्भर रहती हैं और उसका क्रियाक्षेत्र परिमित तथा संकुचित होता है। इंद्रजाल के दर्शक हजारों होते हैं और दृश्य का आकार प्रकार बहुत बड़ा होता है। ठग लोग जादू के तरीकों का उपयोग अपने छलपूर्ण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते हैं.
लेकिन प्राचीन भारत में इंद्रजाल का एक अलग ही स्वरूप विद्यमान रहा है , जिसके अनुसार इंद्रजाल का अर्थ है – इन्द्रियों का जाल या आवरण ! अर्थात वह विद्या जिससे इन्द्रिय जाल से ढकी सी आच्छादित हो जाये ! इंद्र और सम्बर इस विद्या के आचार्य माने जाते है ! प्राचीन समय में ऐसे खेल राजाओं के सामने किए जाते थे। बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दिनों तक कुछ लोग ऐसे खेल करना जानते थे, परंतु अब यह विद्या नष्ट सी हो चुकी है। कुछ संस्कृत नाटकों और गाथाओं में इन खेलों का रोचक वर्णन मिलता है। जादूगर दर्शकों के मन और कल्पनाओं को अपने अभीष्ट दृश्य पर केंद्रीभूत कर देता है। अपनी चेष्टाओं और माया से उनको मुग्ध कर देता है। जब उनकी मनोदशा ओर कल्पना केंद्रित हो जाती है तब यह उपयुक्त ध्वनि करता है। दर्शक प्रतीक्षा करने लगता है कि अमुक दृश्य आनेवाला है या अमुक घटना घटनेवाली है। इसी क्षण वह ध्वनिसंकेत और चेष्टा के योग से सूचना देता है कि दृश्य आ गया या घटना घट रही है। कुछ क्षण लोगों को वैसा ही दीख पड़ता है। तदनंतर इंद्रजाल समाप्त हो जाता है।
प्राचीन भारत में इंद्रजाल की अद्भुत आश्चर्यजनक लीला सारे संसार में प्रसिद्द थी ! अथर्ववेद ८.८.५ में इन्द्र के जाल का वर्णन किया गया है जिसकी सहायता से वह असुरों को वश में करता है। इस सूक्त में इन्द्र के जाल को बृहत् तथा अन्तरिक्ष आदि कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण १.१३५ के अनुसार बृहत् जाल की साधना से पूर्व रथन्तर की साधना करनी पडती है। रथन्तर द्वारा अन्न प्राप्त होता है जो रथ रूपी अशना/क्षुधा को शान्त करता है। रथन्तर तथा अन्तरिक्ष आदि को स्व-निरीक्षण, अपने अन्दर प्रवेश करना, एकान्तिक साधना का प्रतीक कहा जा सकता है। योगवासिष्ठ में इन्द्रजाल के आख्यान के माध्यम से जाल अवस्था से पूर्व रथन्तर की साधना को दर्शाया गया है। इसे इन्द्रजाल का पूर्व रूप कहा जा सकता है। इन्द्रजाल का उत्तर रूप क्या होगा, यह अथर्ववेद ८.८.५ के आधार पर अन्वेषणीय है। शब्दकल्पद्रुम कोश में इन्द्रजाल शीर्षक के अन्तर्गत इन्द्रजालतन्त्र नामक पुस्तक को उद्धृत किया गया है जिसमें इन्द्रजाल के अधिपति जालेश रुद्र का उल्लेख आया है। अथर्ववेद ६.५७.२ में जालाष को उग्र भेषज कहा गया है जो तन, मन सबकी चिकित्सा करती है। अथर्ववेद १९.१०.६ के शम्/शान्ति सूक्त में इन्द्र से वसुओं के द्वारा शान्ति करने, वरुण से आदित्यों के द्वारा व जलाष रुद्र से रुद्रों के