phephadon ke aavaran kee jalan

फेफड़ों के आवरण की जलन – पुरुष रोग का होम्योपैथी उपचार – phephadon ke aavaran kee jalan – purush rog ka homeopathy se upchar

फेफड़ों के आवरण की जलन

जानकारी-

हमारे शरीर में फेफड़ों को ढकने वाली अर्थात फेफड़ों की परत को प्लुरा कहा जाता है। अगर इस परत पर सूजन आ जाती है तो उस रोग को प्लूरिसी रोग कहते हैं। इस रोग से पीड़ित होने वाले रोगियों में से 10 प्रतिशत रोगी को यह रोग टी.बी. के कारण होता है। इसके अलावा ठण्ड लगने, वात-रोग, टाइफायड, इन्फ्लुएंजा, ब्राइट्स रोग तथा न्युमोनिया के कारण भी यह रोग हो सकता है।

कारण-

प्लुरिसी रोग होने का मुख्य कारण बैक्टीरिया से संक्रमण फैलना है, इस संक्रमण के पीछे जो कारण होता है वह टी.बी. रोग होता है। गुर्दे के रोग, गुर्दे का सही तरह से काम न करना, कैंसर आदि भी प्लुरिसी रोग के होने का कारण होता है।

लक्षण-

प्लुरिसी रोग में रोगी को खांसी के साथ सांस लेने में परेशानी होती है, सीने में बहुत तेजी से दर्द होता है जो खांसने पर, हिलने-डुलने पर, गहरी सांस लेने पर तथा छींक आने पर बढ़ जाता है। इसके साथ रोगी को कमजोरी पैदा हो जाती है, रात को सोते समय रोगी के सिर पर बहुत पसीना आता है तथा खांसी के साथ-साथ बलगम में खून भी आ जाता है।

इस रोग की 3 अवस्थाएं होती हैं-

1. खुश्की की अवस्था

2. स्राव की अवस्था

3. शमन की अवस्था

खुश्की (पहली अवस्था)-

प्लुरिसी रोग की सबसे पहली अवस्था खुश्की होती है। इस रोग में प्लुरा (फेफड़ों की परत) सूज जाती है और छाती के पास के भाग में दर्द होता है। यह दर्द सांस लेने से बढ़ जाता है। रोगी की सांस बहुत तेजी से चलने लगती है। रोगी जब सांस को अन्दर की तरफ खींचता है तो उसे बहुत कष्ट होता है। यह दर्द कभी-कभी सिर्फ पेट में होता है तो इसे आंतों या पेट का दर्द समझ लिया जाता है। खांसी का दर्द के साथ आना, बलगम का बहुत कम आना, रोगी से सिर्फ उस करवट लेटा जाता है जिधर की तरफ रोग का आक्रमण नहीं होता। रोगी की नब्ज तेज हो जाती है। रोगी का बुखार 102-103 डिग्री तक पहुंच जाता है। रोगी की छाती में अगर दर्द होता है तो उसके कारण फेफड़ों को ढकने वाली परत सूज जाती है। जब सांस लेने पर ये सूजी हुई प्लुरा, फेफड़ों की परत को छूती है तब इन दोनों परतों की रगड़ लगने से रोगी की छाती में बहुत तेज दर्द होता है।

प्लुरा (फेफड़ों की परत) में से स्राव निकलना (दूसरी अवस्था)-

प्लुरिसी रोग की दूसरी अवस्था प्लुरा (फेफड़ों की परत) में से स्राव निकलना में रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) और फेफड़ों के बीच में बहुत सारा स्राव जमा हो जाता है। इस समय स्राव जमा हो जाने के कारण परतों में रगड़ नहीं लग पाती तो रोगी को छाती में दर्द कम होता है। रोगी की सांस भारी होने लगती है और अगर स्राव रोगी के बाएं फेफड़े की तरफ जमा हुआ हो तो स्राव के कारण दिल दूसरी तरफ खिसक जाता है। रोगी को बुखार चढ़ा रहता है और खून में सफेद कणों की मात्रा बढ़ जाती है। रोगी का शरीर कमजोर सा पड़ने लगता है। रोगी को पेशाब बहुत कम मात्रा में और गाढ़े रूप में आता है। रोगी की यह हालत 1 सप्ताह तक रह सकती है। अगर स्राव 1 सप्ताह तक समाप्त हो गया तो ठीक है नहीं तो इसे डॉक्टर से निकलवाना पड़ता है।

रोग के शमन की (तीसरी अवस्था)-

रोगी की तीसरी अवस्था में रोगी के सारे लक्षण कम होने लगते हैं। रोगी धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगता है, स्राव सूखने लगता है। कभी अगर स्राव सूखता नहीं है तो उसे निकलवाना पड़ता है नहीं तो प्लुरा (फेफड़ों की परत) और फेफड़ों के बीच में मवाद पड़ जाती है। अगर एक बार इन दोनों के बीच में मवाद पड़ जाती है तो रोगी बहुत मुश्किल में आ सकता है।

प्लुरिसी रोग की तीनों अवस्थाओं में विभिन्न औषधियों का प्रयोग-

पहली अवस्था- प्लुरा (फेफड़ों की परत) में सूजन-

1. ऐकोनाइट- प्लुरिसी रोग में प्लुरा (फेफड़ों की परत) में सूजन आने की शुरुआती अवस्था में रोग का पता चलते ही रोगी को ऐकोनाइट औषधि की 30 शक्ति की कुछ मात्राएं दी जाए तो रोगी 24 से 48 घंटों में बिल्कुल स्वस्थ हो जाता है। रोगी को ऐकोनाइट औषधि के रस की 15-20 बूंदें रोजाना रोगी को देने से रोगी का रोग काबू में आ जाता है। इस औषधि के रस से प्लुरा (फेफड़ों की परत) का स्राव भी समाप्त हो जाता है इसलिए इस रोग की दूसरी अवस्था में भी इस औषधि का प्रयोग किया जा सकता है।

2. ब्रायोनिया- प्लुरा (फेफड़ों की परत) में सूजन आने पर रोगी के सूजन वाले भाग की तरफ लेटने से ऐसा भी हो सकता है कि वह भाग दब जाए और सांस लेने से रोगी का जो फेफड़ा नहीं दबा है और जिस पर रोग का आक्रमण नहीं हुआ है वही काम करें। जिस फेफड़े पर रोग का हमला हुआ हो वह काम न करे और उसके काम न करने के कारण रोग वाले हिस्से की तरफ दर्द न हो। अगर इस रोग में रोगी को ये लक्षण नज़र आते हैं तब ब्रायोनिया औषधि की 30 शक्ति का प्रयोग करने से लाभ मिलता है।

3. बेलाडोना- जब रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) में सूजन की सिर्फ शुरुआत हुई हो तब प्लुरा (फेफड़ों की परत) में दबाव पड़ने से उसमें दर्द होता है और इस हालत में दर्द वाले तरफ लेटने से दर्द बढ़ जाता है। लेकिन यह दर्द सिर्फ शुरुआत में ही होता है। इसके अलावा रोगी को बहुत तेज बुखार हो, चेहरा कमजोर दिख रहा हो तब बेलाडोना औषधि की 30 शक्ति का सेवन करना चाहिए।

दूसरी अवस्था- प्लुरा (फेफड़ों की परत) में स्राव जमा हो जाना-

1. ऐन्टिम टार्ट- प्लुरा (फेफड़ों की परत) में बलगम जमा हो जाने की शुरुआती अवस्था में रोगी की छाती में घड़-घड़ सी आवाज होती है। लेकिन बलगम का थोड़ी सी मात्रा में निकलना जैसे लक्षणों में ऐन्टिम टार्ट औषधि की 3x मात्रा देने से रोगी को लाभ मिलता है।

2. सल्फर- अगर रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) में स्राव जमा हो जाने पर ऐन्टिम टार्ट औषधि का सेवन कराने पर भी स्राव बराबर मात्रा में निकलता रहता है और स्राव बिल्कुल कम न हो तो सल्फर की 30 शक्ति रोगी को देनी चाहिए।

3. आर्सेनिक- अगर प्लुरा (फेफड़ों की परत) में स्राव जमा हो जाने पर रोगी को ऐन्टिम टार्ट औषधि और सल्फर औषधि देने से भी स्राव कम न हो तो रोगी को आर्सेनिक औषधि की 30 शक्ति देने से जरूरी लाभ होता है।

4. आर्निका- किसी व्यक्ति के काफी देर तक व्यायाम आदि करने पर या किसी तरह की चोट लगने के बाद अगर प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाने का रोग हो जाता है तो उसे आर्निका औषधि की 3x मात्रा या 200 शक्ति देना लाभकारी रहता है।

5. ऐपिस- अगर पहले दी गई औषधियों में से किसी से भी प्लुरा (फेफड़ों की परत) में स्राव कम न हो तो रोगी को हर 2 घंटे के बाद एपिस औषधि की 3x मात्रा देनी चाहिए।

तीसरी अवस्था-प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाना-

1. हिपर-सल्फ- अगर प्लुरिसी रोग काफी पुराना हो जाता है तो रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) में स्राव का मवाद बनने लगता है और रोगी में टी.बी. रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में रोगी को हिपर सल्फ की 30 शक्ति देनी चाहिए।

2. सल्फर- जब रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) में जमा हुआ स्राव बहुत ज्यादा गाढ़ा हो जाए और रोगी को हिलने-डुलने में भी परेशानी होने लगे तो रोगी को सल्फर औषधि की 30 शक्ति हर 2 घंटे के बाद देने से लाभ होता है।

3. साइलीशिया- रोगी के प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाने पर रोगी को हर 2 घंटे के बाद साइलीशिया औषधि की 30 शक्ति देना लाभकारी रहता है।

4. चायना- अगर प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाने के कारण रोगी बहुत कमजोर हो जाता है और उसमें टी.बी. रोग के लक्षण नज़र आने लगते हैं तो उसे चायना औषधि की 3 शक्ति हर 2 घंटे के बाद सेवन कराने से आराम मिलता है।

5. टैनिक- अगर प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाने के कारण पीब अपने आप ही निकलती रहती है तो रोगी को टैनिक एसिड औषधि देना लाभकारी होता है।

6. मर्क-सोल – रोगी को रात के समय बहुत ज्यादा पसीना आना, इतना पसीना आने पर भी रोगी को आराम नहीं मिलता। रात को सोते समय रोगी के रोग के सारे लक्षण बढ़ जाते हैं। बुखार कम होने पर भी रोगी की परेशानी समाप्त नहीं होती। इन लक्षणों में रोगी को मर्क-सोल औषधि की 6 या 30 शक्ति देनी चाहिए।

7. ऐन्टिम-टार्ट- रोगी को बहुत तेज खांसी होना, गले में बलगम जमा हो जाने से गले का घरघराना, रोगी को अपनी छाती में दबाव सा महसूस होता है। रोगी का जी मिचलाता रहता है, रोगी को अपनी सांस अटकती हुई सी महसूस होती है, रोगी के दिल की धड़कन बहुत तेज हो जाती है। इन लक्षणों में रोगी को ऐन्टिम-टार्ट की 3x मात्रा या 30 शक्ति या विचूर्ण देना लाभकारी रहता है।

8. सिमिसिफ्यूगा- रोगी की छाती में बहुत तेज दर्द होना, रोगी अगर जरा सी भी तेज आवाज में बोलता है तो उसकी खांसी तेज हो जाती है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को सिमिसिफ्यूगा औषधि की 6 शक्ति देना लाभदायक रहता है।

9. आयोडीन- अगर प्लुरा (फेफड़ों की परत) में मवाद पड़ जाने के कारण रोगी बहुत ज्यादा कमजोर हो जाए। रोग के काफी पुराने हो जाने के कारण रोगी को सांस लेने और छोड़ने में परेशानी आए, रोगी अगर पेट के बल लेटता है या गर्मी से रोगी की खांसी तेज हो जाती है। ऐसे लक्षणों में रोगी को आयोडीन औषधि की 3x मात्रा या 6 शक्ति देनी चाहिए।

10. कैन्थरिस- रोगी को अपनी सांस की नली सूखी और कमजोर सी मालूम होती है। रोगी को ज्यादा गहरी सांस छोड़ने या ज्यादा तेज बोलने से भी डर लगने लगता है कि कहीं खांसी न उठ जाए। रोगी को सांस लेने में परेशानी होना, दिल का बहुत तेजी से धड़कना, आवाज का बहुत ही धीरे से निकलना आदि लक्षणों में कैन्थरिस की 3 या 30 शक्ति देना लाभदायक रहता है।

11. कैलि-म्यूर- रोगी के मुंह से लेसदार बलगम आता है जिसे आसानी से निकाला भी नहीं जा सकता और यह मुंह में ही चिपका रहता है। रोगी की पसलियों में दर्द रहता है, सांस लेने में परेशानी होती है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को कैलि-म्यूर औषधि की 6x मात्रा या 200 शक्ति देनी चाहिए।

12. कैलि-बाइक्रोम- रोगी को बहुत ज्यादा मात्रा में लेसदार बलगम आना जो थूकने के समय लंबी सी तार के रूप में मुंह के बाहर लटकता रहता है। बलगम के निकलने के बाद रोगी खांसने के साथ हांफता रहता है। गले में सुरसुरी होकर रोगी को खांसी आती है, दिल बहुत तेजी से धड़कता है, सांस लेने में परेशानी होना, रोगी जब लेटता है तो उसको ऐसा महसूस होता है जैसेकि उसकी सांस रुक रही है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को कैलि-बाइक्रोम की 6 या 30 शक्ति देना अच्छा रहता है।

13. कार्बो-वेज- प्लुरा (फेफड़ों की परत) के अन्दर का स्राव अगर रोगी को ऐसा महसूस होता है जैसे कि वह मवाद बनने वाला है। रोगी बहुत ज्यादा कमजोर हो जाता है, हर समय सुस्त सा ही रहता है, रोगी को अपने सीने में बहुत ज्यादा जलन महसूस होती है, बलगम खट्टा या नमकीन सा तथा बदबूदार निकलता है। इस तरह के लक्षणों में रोगी को कार्बो-वेज औषधि की 6 या 30 शक्ति लाभदायक रहती है।

जानकारी-
प्लुरिसी रोग में रोजाना अपने भोजन में विटामिन-ए और विटामिन-सी का ज्यादा मात्रा में सेवन करने से शरीर में इस रोग से लड़ने की शक्ति तेज हो जाती है।
रोगी को धूम्रपान और नशीले पदार्थों से दूर रहना चाहिए।
अगर रोगी को सांस की कोई छोटी से छोटी परेशानी भी होती है तो उसे तुरन्त ही डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
संक्रमण फैलाने वाले लोगों से रोगी को बचकर ही रहना चाहिए।
रोगी व्यक्ति की इस्तेमाल की हुई चीजों को जैसे तौलिया, बर्तन, कपड़े आदि को इस्तेमाल में नहीं लाना चाहिए।
भोजन ऐसा करना चाहिए जो पौष्टिक हो और रोजाना थोड़ा बहुत व्यायाम भी करना चाहिए।

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