rogo ke karan

रोगों का कारण – राशिनुसार पुरुष रोग का उपाय – rogo ke karan – raashinusaar purush rog ka upaay

रोगों का कारण

सृ्ष्टि के प्रत्येक क्रियाकलाप की भान्ती ही रोगों के बारे में भी कार्य-कारण का सिद्धान्त काम करता है. जब रोग के सही कारण का पता चले तो ही हम उन कारणों को दूरकर रोग को जड-मूल से भगा सकते हैं. और यदि सच्चे कारण को न जाना, केवल इधर-उधर की या ऊपरी बातों को ही जानकर संतुष्ट हो गए, तो, एक के बाद एक दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा रोग बना रहेगा. और जैसा कि अब है, मैडीकल साईंस की इतनी उन्नति और गली गली में डाक्टरों की मौजूदगी के बावजूद दुनिया बीमारियों की खान बनी हुई है,और रहेगी भी.
सच पूछिए, तो सारे रोगों का एक ही कारण है—-शरीर में विकार का आ जाना. मनुष्य शरीर प्रकृ्ति के नियमों के अनुसार अपने को बराबर ही साफ सुथरा और स्वस्थ रखना चाहता है. हर रोज हम देखते हैं कि शरीर के अन्दर यह क्रिया बराबर ही जारी रहती है, जिससे भीतर की गन्दगी शरीर से बाहर निकाल दी जाती है. गन्दगी दूर होने के चार ढंग या रास्ते हैं—–फेफडे से सारे शरीर की एक खास तरह की गन्दगी लेकर सांस का बाहर आना, त्वचा से पसीने के रूप में गन्दगी का बाहर निकलना, शौच और मूत्र के रूप में गन्दगी का निष्काषन. यदि इन साधारण विधियों से शरीर के अन्दर का विकार नहीं निकल पाता तो शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग काम में लाए जाते हैं. इस हालत में शरीर की शक्तियाँ तेजी के साथ दूसरे ढंगों से सफाई का काम शुरू कर देती हैं. या तो शरीर के अन्दर की गर्मी ज्वर के रूप में बढकर भीतर की गन्दगी को जला देती है या कुछ दस्त ज्यादा आते हैं या ऎसी ही कोई असाधारण बात होती है, जिससे शरीर के अन्दर की सफाई हो जाती हैं. याद रहे, शरीर की रक्षा के लिए विकारों का बाहर निकल जाना आवश्यक है. इसी से जब जब भी शरीर द्वारा अन्य असाधारण ढंग से सफाई अभियान चलाया जाता है—–तभी कहा जाता है कि रोग हुआ. वैसे तो रोग का नाम ही बुरा है, लेकिन इस तरह गहराई में जाकर देखने से पता चलता है कि शरीर की गन्दगी को बाहर निकाल फैंकनें के लिए, विकारों को जला देने के लिए, प्रकृ्ति की ओर से अपनाया गया ये साधारण ढंग अपने आप में एक जबरदस्त साधन हैं.

अब जो बात सबसे महत्वपूर्ण है, वो ये कि शरीर द्वारा भीतरी अशुद्धियों के निष्काषण के परिणाम स्वरूप उत्पन हुई जिन स्थितियों को हम रोग कहकर पुकारते है, दरअसल ये रोग नहीं होते—ये होती हैं असुविधाएं. रोग तो वह है जो मनुष्य के किसी अंग का कार्य-संचालन रोक देता है. एक दुबला-पतला आदमी अपना कार्य करने में कुशल है. यदि उसके समस्त अंग ठीक हैं तो वह स्वस्थ है और अगर एक हष्ट-पुष्ट मनुष्य अपने अंगों का प्रयोग ठीक से नहीं कर पाता तो वह रोगी माना जाएगा.

ब्राह्मंड की भान्ती ही मानवी शरीर भी जल,पृ्थ्वी,अग्नि,वायु एवं आकाश नामक इन पंचतत्वों से ही निर्मित है और ये पँचोंतत्व मूलत: ग्रहों से ही नियन्त्रित रहते हैं. आकाशीय नक्षत्रों(तारों, ग्रहों) का विकिरणीय प्रभाव ही मानव शरीर के पंचतत्वों को उर्जस्वित करता है. इस उर्जाशक्ति का असंतुलन होने पर अर्थात जब भी कभी इन पंचतत्वों में वृ्द्धि या कमी होती है या किसी तरह का कोई “कार्मिक दोष” उत्पन होता है,तब उन तत्वों में आया परिवर्तन एक प्रतिक्रिया को जन्म देता है. यही प्रतिक्रिया रोग के रूप में मानव को पीडित करती है. एक रोग वह है,जिससे शरीर का कोई अंग सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाता. इसका समाधान करने के लिए भी कईं विज्ञान हैं,सैकडों प्रकार की औषधियाँ हैं,जिनके माध्यम से रोग मुक्त हुआ जा सकता है. परन्तु कईं ऎसे रोग भी हैं,जिनका सम्बंध आत्मा से होता है (यह विषय अत्यधिक विस्तार माँगता है, सो इसे कभी अलग से किसी पोस्ट के जरिए स्पष्ट करने का प्रयास रहेगा). उनका समाधान दवाओं तथा डाक्टरों,हस्पतालों के जरिए नहीं हो सकता. उसके लिए तो सिर्फ अपने कर्मों की शुद्धता तथा आध्यात्मिकता ही एकमात्र उपाय है.

हमारे इस शरीर की स्थिति के लिए जन्मकुंडली का लग्न(देह) भाव, पंचमेश और चतुर्थेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. लग्न भाव देह को दर्शाता है,चतुर्थेश मन की स्थिति और पंचमेश आत्मा को. जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में लग्न(देह),चतुर्थेश(मन) और पंचमेश(आत्मा) इन तीनों की स्थिति अच्छी होती है,वह सदैव स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है.
आप सभी जानते हें चन्द्रमा मन का कारक ग्रह है, जो “चन्द्रमा मनसा जातो” इस वाक्य से सुप्रमाणित है। चन्द्रमा अपनी कलाओं के माध्यम से ही हमारे मन को संचालित करता है। पूर्णिमा को जब पूर्ण चन्द्रोदय होता है, उस समय समुद्र में ज्वार भाटा उत्पन होता है और मनुष्यों में मानसिक रोगों का आवेग भी सर्वाधिक रूप में इसी तिथि को दिखाई देता है। इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों द्वारा पूर्णिमा के दिन व्रत, तीर्थ-स्नान, पूजन एवं जप इत्यादि का विधान बनाया गया है, जिससे कि मनुष्य का मानसिक संतुलन बना रहता है।
सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रहों के पंचतत्वात्मक प्रतिनिधित्व को इस प्रकार निरूपित किया गया है।

वेसे ही मंगल अग्नि तत्व का, बुध पृ्थ्वी तत्व का, बृ्हस्पति आकाश तत्व का, शुक्र जल तत्व का और शनि वायु तत्व का प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य के शरीर में इन तत्वों की कमी अथवा वृ्द्धि का कारण तात्कालिक ग्रह स्थितियों के आधार पर जानकर ही कोई भी विद्वान ज्योतिषी भविष्य में होने वाले किसी रोग-व्याधी का बहुत ही आसानी से पता लगा लेता है। क्यों कि इन पंचतत्वों का असंतुलन एवं विषमता ही शारीरिक रोग-व्याधी को जन्म देता है।

इसलिए प्राचीनकाल में ज्योतिष के विद्यार्थी को आयुर्वेद की शिक्षा भी साथ ही प्रदान की जाती थी तथा चिकित्सक ,वैधक भी ज्योतिष विद्या में पारंगत हुआ करते थे । जिससे कि रोगी के शरीर में जिस भी तत्व की कमी या अधिकता है, उसे जानकर शरीर में विद्यमान अन्य तत्वों के साथ उसका उचित संतुलन रखा जा सके।

जैसे कि मान लीजिए किसी व्यक्ति पर सूर्य ग्रह का विशेष प्रभाव है तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता होगी । अब यदि वो व्यक्ति अधिक मात्रा में जलीय पदार्थो का सेवन करे तो उसके शरीर में अग्नि तत्व की अधिकता का कोई दुष्प्रभाव नहीं हो पाएगा अर्थात जल तत्व को बढाकर अग्नि तत्व की विषमता को कम किया जा सकता है । ठीक इसी प्रकार से शरीर में अन्य तत्वों का भी सही सन्तुलन बनाए रखा जा सकता है।

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