भारतीय आदमी विदेश में जाकर बस जाए, तो उसे भारतीय मसालों की याद तो आती ही है। स्वामी विवेकानंद भी जब विदेश में जाकर भारतीय धर्म-संस्कृति से विदेशियों को परिचित करवा रहे थे, तब वह भारत में अपने शिष्यों को मसाले भेजने के लिए लिखते थे।
भारत से अमेरिका गए कुछ भारतीय चिकित्सा वैज्ञानिकों को भी मसाले याद आए हैं, लेकिन दूसरे संदर्भ में। चेन्नई में चल रही भारतीय विज्ञान कांग्रेस में आए कुछ वैज्ञानिकों ने बताया है कि उन्हें कुछ मसालों में कैंसर को रोकने के गुण मिले हैं। इस तरह के शोध करने में भारतीय मूल के वैज्ञानिक सबसे आगे हैं, उसके बाद चीनी और कोरियाई।
हल्दी में वैज्ञानिकों ने क्यूरक्यूसिन नामक रसायन ढूंढ़ा है, जिसका प्रयोग चूहों पर सफल रहा है और इंसानों पर भी प्रारंभिक प्रयोगों में अच्छी सफलता मिली है। इसी तरह एक और टीम ने केसर से भी एक रसायन अलग किया है, जिसका नाम क्रोसेटीन है और वह पैंक्रियाज के कैंसर में काफी कारगर साबित हो सकता है। इसका पशुओं पर प्रयोग सफल रहा है और इंसानों पर प्रयोग शुरू होने जा रहे हैं।
इसी तरह लहसुन भी कैंसर के इलाज में कारगर हो सकता है। कैरेबियन्स में पाई जाने वाली एक तरह की गोल मिर्च से भी कैंसररोधी रसायन निकाला गया है।
कैंसर के प्रभावी इलाज के लिए अनेक स्तरों पर प्रयोग चल रहे हैं और इन प्राकृतिक मसालों से निकले रसायनों से खास उम्मीद इसलिए भी है कि इनके लंबे वक्त तक इस्तेमाल के कोई दुष्परिणाम नहीं होते, आखिरकार शताब्दियों से इनका इस्तेमाल खाने में हो रहा है। कैंसररोधी जो दवाएं इन दिनों उपलब्ध हैं, वे कुछ किस्म के कैंसरों में काफी कारगर हैं, बशर्ते कि कैंसर बहुत फैल न गया हो।
इन दवाओं के साथ समस्या यह है कि ये बहुत महंगी हैं, इन्हें बहुत दिन खाना पड़ता है और इनके दुष्परिणाम काफी ज्यादा होते हैं, कभी-कभी मरीज को रोग से जितनी तकलीफ होती है, उससे ज्यादा दवाओं से होती है। अगर
घरेलू मसालों से प्रभावी दवाएं बन सकीं, तो शायद वे इतनी महंगी न हों और मरीज के लिए उन्हें खाना इतना तकलीफदेह न हो।
हमारे यहां यह माना जाता है कि तमाम मसालों में कुछ न कुछ औषधीय गुण हैं और इसीलिए आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में इन सबका इस्तेमाल होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान या जिसे आम भाषा में एलोपैथी कहते हैं, इसमें भी कुछ साल पहले तक ज्यादातर दवाएं यूरोप या अमेरिका में मिलने वाली जड़ी-बूटियों या मसालों से ही बनती थीं।