वैदिक काल में संवत शब्द वर्ष का वाचक था। संवत्सर इद्वत्सर इत्यादि ये संवत्सर के पर्यायवाची शब्द हैं। इसी आधार पर से सूर्य सिद्धांतकार ने काल गणना से प्रसिद्ध नौ विभागों का उल्लेख किया है:-
“ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यंच गौरवम। सौरं च सावनं चान्द्रमार्क्षं मानानि वै नव॥”
इस प्रकार अवान्तर के ज्योतिषकाल में वर्षों के नौ भेद कहे गये हैं। जैसे-
1. ब्राह्मवर्ष
2. दिव्यवर्ष
3. पितृवर्ष
4. प्रजापत्यवर्ष
5. गौरववर्ष
6. सौरवर्ष
7. सावनवर्ष
8. चान्द्रवर्ष
9. नाक्षत्रवर्ष
इस प्रकार सिद्धान्त ज्योतिषकाल में शुद्धगणित ज्योतिष विकासोन्मुख हो गया था। वैदिक काल में आज के अर्थ में तिथि का प्रयोग नही होता था। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार जहां चन्द्रमा अस्त होता है और उदय होता है वह तिथि है। इसका मतलब है कि तिथि का अर्थ कुछ और ही है,कालान्तर में तिथि का यह अर्थ हुआ कि जितने में सूर्य का सापेक्ष में चन्द्रमा अंशों आगे चलता है,वही तिथि है। सामविधान ब्राह्मण मे कृष्ण चतुर्दशी कृष्ण पंचमी शुक्ल चतुर्दशी आदि शब्द आये हैं। क्षय तिथियों का वैदिक काल में उल्लेख नही प्राप्त होता है,शंकर बालकृष्ण दीक्षित मानते है कि प्रतिपदा एवं द्वितीया से तात्पर्य इस काल में पहली दूसरी रातों के लिये प्रयुक्त होता था। कालान्तर मे इनका नाम बदल गया होगा और जो वर्तमान में प्रयुक्त होता है वह हो गया होगा। वैदिक काल में दिन को चार भागों में विभाजित करने की प्रथा थी। पूर्वाह्न मध्याह्न अपराह्न सायाह्न ये नाम थे। दिनों को पन्द्रह भागों को बांट कर उनमे से एक को मुहूर्त कहा जाता था। परन्तु अब मुहूर्त का अर्थ बदला हुआ है,और वह भी फ़लित संयोग के कारण। तैत्तरीय ब्राह्मण में एक ही जगह पर सूर्य चन्द्रमा नक्षत्र संवत्सर ऋतु मास अर्धमास अहोरात्र आदि शब्द प्रयुक्त हुये है।