वैदिक काल में नक्षत्र केवल चमकीले तारे या सुगमता से पहचाने जाने वाले छोटे तारे के पुंज थे,परन्तु आकाश में इनकी बराबर दूरी न होना एवं तारों का पुंज न रहने से बडी असुविधा रही होगी। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की जटिल गति भी कठिनाई से ज्ञात हुयी होगी। पूर्णिमा के के होने की सही स्थिति का भान न होना भी एक कठिनाई रही होगी। चन्द्रमा का मार्ग आकाश में स्थिर न होना भी एक कठिनाई थी। एक ही तारे को कभी समीप और कभी पास रहने से भी तारों को देखकर माह बनाने में कठिनाई रही होगी। परन्तु यह सभी बातें कालान्तर में स्पष्ट हो गयी होंगी। चन्द्रमा का समीप होना और तारों का दूर होना भी एक कठिनाई रही होगी। सभी कठिनाइयों के कारण ही स्पष्ट हो गया कि तैत्तरीय-ब्राह्मण तक चन्द्रमा का नियमित वेध प्रारम्भ हो गया था।
वेद संहिता ब्राह्मण किसी मे भी महिनों के चैत्र बैसाख आदि नाम नही हैं। ये नाम वेदांग ज्योतिष में जो १२०० ईशा से पूर्व का ग्रंथ है। इस प्रकार यह अनुमान किया जा सकता है कि नवीन मासों के नाम २००० ईशा पूर्व से परिवर्तन में आये होंगे।
प्राचीन काल में सप्ताह का कोई महत्व नही था। सप्ताह के दिनों के नाम का उल्लेख वेद संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में नही है। उस समय पक्ष एवं उनके उपविभाग ही चलते थे।