मत्स्य पुराण के अध्याय 251 के अनुसार अंधकार के वध के समय जो श्वेत बिन्दु भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर गिरे, उनसे भयंकर आकृति वाला पुरुष उत्पन्न हुआ! उसने अंधकगणों का रक्तपान किया तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई! त्रिलोकी का भक्षण करने को जब वह उद्यत हुआ, तो शंकर आदि समस्त देवताओं ने उसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया व पूजा करवाए जाने का वरदान दिया! हिन्दु संस्कृति में देव पूजा का विधान है! यह पूजा साकार एवं निराकार दोनों प्रकार की होती है! साकार पूजा में देवता की प्रतिमा, यंत्र अथवा चक्र बनाकर पूजा करने का विधान है! वास्तु देवता की पूजा के लिए वास्तु की प्रतिमा एवं चक्र भी बनाया जाता है, जो कि वास्तु चक्र के नाम से प्रसिद्ध है!
जिस स्थान पर गृह, प्रसाद, यज्ञमंडप या ग्राम नगर आदि की स्थापना करनी हो, उसके नैऋत्य कोण में वास्तु देव का निर्माण करना चाहिए! सामान्य विष्णु रूद्रादि यज्ञों में भी यज्ञमंडप में यथा स्थान नवग्रह, सर्वतोभद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैऋत्य कोण में वास्तु पीठ की स्थापना आवश्यक होती है! वास्तु शान्ति आदि के लिए अनुष्ठीयमान वास्तु योग कर्म में तो वास्तु पीठ की ही सर्वाधिक प्रधानता होती है! वास्तु देवता का मूल मंत्र इस प्रकार है:
वास्तोष्पते प्रति जानी हास्मान! त्स्वावेशो अनमीवो भवान:॥
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वशं नो! भव द्विपदे शं चतुष्पदे॥
वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तोष्पति साक्षात परमात्मा का ही नामान्तर है, क्योंकि वे विश्व ब्रह्मा, इंद्र आदि अष्ट लोकपाल सहित 45 देवता अधिष्ठित होते हैं! कर्मकाण्ड ग्रंथों तथा गृह्यसूत्रों में इनकी उपासना एवं हवन आदि के अलग-अलग मंत्र निर्दिष्ट हैं! हयशीर्ष पांचशत्र, कपिल पांचरात्र, वास्तुराजवल्लभ आदि ग्रंथों के अनुसार प्राय: सभी वास्तु संबंधी कृत्यों में एकाशीति (18) तथा चतुषष्टि (64) कोषठात्मक चक्रयुक्त वास्तुवेदी के निर्माण करने की विधि है! इन दोनों में सामान्य अंतर है! 81 पद वाली वास्तु में उत्तर-दक्षिण और पूर्व पश्चिम से 10-10 रेखाएं खींची जाती हैं और चक्र रचना के समय 20 देवियों के नामोल्लेखपूर्वक नमस्कार मंत्र से रेखाकरण क्रिया सम्पन्न की जाती है! 64 पद वाली वास्तु में 9-9 रेखाएं खींची जाती हैं! ये नौ रेखाएं नौ देवियों के प्रतिनिधि भूत हैं! रेखा खींचते समय वेदमंत्रों से इन देवियों को नमस्कार करना चाहिए! इनका नाम है लक्ष्मी, यशोवती, कान्ता, सुप्रिया, विमला, श्री, सुभगा, सुगति व इंद्रा! इसी प्रकार उत्तर-दक्षिण की रेखा देवियों के नाम इस प्रकार हैं- धान्या, प्राणा, विशाला, स्थ्रिा, भद्रा, स्वाहा, जया, निशा तथा विरजा!
वास्तुमंडल में 45 देवताओं का स्थान निर्धारण करने के पश्चात् मंडल के बाहर ईशान, आग्नेय, नैऋत्य तथा वायव्य कोणों में क्रमश: चरकी, बिदारी, पूतना, पापराक्षसी की प्रथा चार दिशाओं में स्कंद, अर्यभा, जृम्भक तथा पिन्निपिन्ध देवताओं की स्थापना करनी चाहिए! फिर दस दिक्पालों का आह्वान कर पूजा करनी चाहिए! वास्तुचक्र के उत्तर में वास्तु कलश की स्थापना कर उसमें वास्तु देवता की अग्न्युत्तारणपूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करनी चाहिए तथा फिर विधिपूर्वक वास्तु पुरुष की पूजा करके चक्रस्थ देवताओं को पायस बलि देकर उनसे कल्याण की कामना करनी चाहिए!
वास्तु देवता – पूजा विधान – vastu devata – pooja vidhana – वैदिक वास्तु शास्त्र – vedic vastu shastra