दिशाओं में देवी-देवताओं और स्वामी ग्रहों के आधिपत्य से संबंधित बहुत चर्चाएं की गई हैं! दिशाओं के देव व स्वामी होने से पृथ्वी पर किसी भूखंड पर निर्माण कार्य प्रारंभ करते समय यह विचार अवश्य कर लेना होगा कि भूखंड के किस भाग में किस उद्देश्य से गृह निर्माण कराया जा रहा है! यदि उस दिशा के स्वामी या अधिकारी देवता के अनुकूल प्रयोजनार्थ निर्माण नहीं हुआ तो उस निर्माणकर्ता को उस दिशा से संबंधित देवता का कोपभाजन होना पड़ता है! इसलिए आठों दिशाओं व स्वामियों के अनुसार ही निर्माण कराना चाहिए!
पूर्व दिशा:- सूर्योदय की दिशा ही पूर्व दिशा है! इसका स्वामी ग्रह सूर्य है! इस दिशा के अधिष्ठाता देव इन्द्र हैं! इस दिशा का एक नाम प्राची भी है! पूर्व दिशा से प्राणिमात्र का
बहुत गहरा संबंध है! किन्तु सचेतन प्राणी मनुष्य का इस दिशा से कुछ अधिक ही लगाव है! व्यक्ति के शरीर में इस दिशा का स्थान मस्तिष्क के विकास से है! इस दिशा से पूर्ण तेजस्विता का प्रकाश नि:सृत हो रहा है! प्रात:कालीन सूर्य का प्रकाश संपूर्ण जगत को नवजीवन से आच्छादित कर रहा है! इस प्रकार आत्मिक साहस और शक्ति दिखलाने वाला प्रथम सोपान पूर्व दिशा ही है! जो हर एक को उदय मार्ग की सूचना दे रही है! इस दिशा में गृह निर्माणकर्ता को निर्माण करने अभ्युदय और संवर्धन की शक्ति अनवरत मिलती रहती है!
दक्षिण दिशा:- दक्षिण दक्षता की दिशा है!इसका स्वामी ग्रह मंगल और अधिष्ठाता देव यम हैं! इस दिशा से मुख्यत: शत्रु निवारण, संरक्षण, शौर्य एवं उन्नति का विचार किया जाता है! इस दिशा के सुप्रभाव से संरक्षक प्रवृत्ति का उदय, उत्तम संतानोत्पत्ति की क्षमता तथा मार्यादित रहने की शिक्षा मिलती है! इस दिशा से प्राणी में जननशक्ति एवं संरक्षण शक्ति का समन्वय होता है! इसीलिए वैदिक साहित्य में इस दिशा का स्वामी पितर व कामदेव को भी कहा गया है!
यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में प्रमुख कर्ता हेतु शयनकक्ष दक्षिण दिशा में होना अत्यंत श्रेष्ठ माना गया है! वास्तुशास्त्र के अनुरूप गृह निर्माण यदि दक्षिणवर्ती अशुभों से दूर रहकर किया जाए तो गृहस्वामी का व्यक्तित्व, कृतित्व एवं दाक्षिण्यजन्य व्यवहार सदा फलीभूत रहता है!
पश्चिम दिशा: पश्चिम शांति की दिशा है! इस दिशा का स्वामी ग्रह शनि और अधिष्ठाता देव वरुण हैं! इसका दूसरा नाम प्रतीची है! सूर्य दिन भर प्रवृत्तिजन्य कार्य करने के पश्चात पश्चिम दिशा का ही आश्रय ग्रहण करता है! इस प्रकार योग्य पुरुषार्थ करने के पश्चात थोड़ा विश्राम भी आवश्यक है! अतएव प्रत्येक मनुष्य को इस दिशाजन्य प्रवृत्ति के अनुरूप ही वास्तु निर्माण मंी निर्देशित कक्ष या स्थान की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए! वास्तु के नियमानुसार मनुष्य को प्रवास की स्थिति में सिर पश्चिम करके सोना चाहिए!
उत्तर दिशा:- यह उच्चता की दिशा है! इस दिशा का स्वामी ग्रह बुध और अधिष्ठाता देव कुबेर हैं! किन्तु ग्रंथान्तर में सोम (चंद्र) को भी देवता माना गया है! इस दिशा का एक नाम उदीची भी है! इस दिशा से सदा विजय की कामना पूर्ति होती है!मनुष्य को सदा उच्चतर विचार, आकांक्षा एवं सुवैज्ञानिक कार्य का संकल्प लेना चाहिए! यह संकल्प राष्ट्रीय भावना के परिप्रेक्ष्य में हो किंवा परिवार समाज को प्रेमरूप एकता सूत्र में बांधने का, ये सभी सफल होते हैं! ऐसी अद्भुत संकल्प शक्ति उत्तर दिशा की प्रभावजन्य शक्ति से ही संभव हो सकती है! अभ्युदय का मार्ग सुगम और सरल हो सकता है!
स्वच्छता, सामर्थ्य एवं जय-विजय की प्रतीक यह दिशा देवताओं के वास करने की दिशा भी है, इसीलिए इसे सुमेरु कहा गया है! अतएव मनुष्य मात्र के लिए उत्तरमुखी भवन द्वार आदि का निर्माण कर निवास करने से सामरिक शक्ति, स्वच्छ विचार व व्यवहार का उदय और आत्म संतोषजन्य प्रभाव अनवरत मिलता रहता है!
शयन के समय उत्तर दिशा में सिर करके नहीं सोना चाहिए! वैज्ञानिक मतानुसार उत्तरी धु्रव चुम्बकीय क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली धु्रव है! उत्तरी धु्रव के तीव्र चुम्बकत्व के कारण मस्तिष्क की शक्ति (बौद्धिक शक्ति) क्षीण हो जाती है! इसलिए उत्तर की ओर सिर करके कदापि नहीं सोना चाहिए!
वास्तु- कैसे करें दिशाओं का शोधन – vaastu- kaise karen dishaon ka shodhan – वैदिक वास्तु शास्त्र – vedic vastu shastra