वेदास्तावद यज्ञकर्मप्रवृता: यज्ञा प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण,
शास्त्रादस्मात काबोधो यत: स्याद वेदांगत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्सात।
शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी श्रोत्रमुक्तं निरुक्तं कल्प: करौ,
या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य नासिका पादपद्मद्वयं छन्दं आद्यैर्बुधै:॥
वेदचक्षु: किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं मुख्यता चान्गमध्येऽस्य तेनोच्यते,
संयुतोऽपीतरै: कर्णनासादिभिश्चक्षुषाऽगेंन हीनो न किंचित कर:।
तस्मात द्विजैर्ध्ययनीयमेतत पुंण्यं रहस्यं परमंच तत्वम,
यो ज्योतिषां वेत्ति नर: स सम्यक धर्मार्थकामान लभते यशश्च॥
उक्त श्लोक का आशय इस प्रकार है:-
समग्र वेदों का तात्पर्य यज्ञ कर्मो से है,यज्ञों का सम्पादन शुभ समयों के आधीन होता है। अतएव शुभ समय या अशुभ समय का बोध ज्योतिष शास्त्र द्वारा ही होने से ज्योतिष शास्त्र का नाम वेदांग ज्योतिष कहा जाता है। वेद रूप पुरुष के मुख्य छ: अंगों में व्याकरणशास्त्र वेद का मुख ज्योतिष शास्त्र दोनो नेत्र निरुक्त दोनो कान कल्प शास्त्र दोनो हाथ शिक्षा शास्त्र वेद की नासिका और छन्द शास्त्र वेद पुरुष के दोनो पैर कहे गये हैं।
पर पुरुष रूप वेद का ज्योतिष शास्त्र नेत्र स्थानीय होने से ज्योतिष शास्त्र ही वेद का मुख्य अंग हो जाता है।
हाथ पैर कान आदि समाचीन इन्दिर्यों की स्थिति के बावजूद नेत्र स्थानीय ज्योतिष शास्त्र की अनभिज्ञता किसी की नही होती अतएव सर्वशास्त्रों के अध्ययन की सत्ता होती हुयी भी ज्योतिष शास्त्र ज्ञान की परिपक्वता से वेदोक्त धर्म कर्म नीति भूत भविष्यादि ज्ञान पूर्वक धर्म अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।