पौराणिक काल से पीपल, नीम, आंवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती है तथा इससे सम्बन्धित अनेक त्योहारों की मान्यता भी दी गई है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा का चलन था तभी वहाँ से प्राप्त ठीकरों पर अनेक वृक्षों की आकृतियाँ अंकित हैं। इनसे पत्तों के आधार पर पीपल के वृक्ष की पहचान तो हो जाती है पर यह असंभव नहीं कि इसी प्रकार अन्य वृक्षों की भी महत्ता इस समय रही हो। एक ठिकड़े पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दीखती हैं। दीर्घायु, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के कारण आज की तरह उस, समय भी संभवतः पूज्य मान लिया गया होगा। सम्भवतः तब से अब तक उसकी धार्मिक महत्ता बनी रही।
ऋग्वेद में अश्वत्थ की महत्ता का उल्लेख भी पीपल का ही बोधक है। दूसरी मुहर पर देवता की नग्न मूर्ति बनी है। उनके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएं अंकित हैं। यहां की एक मुहर वन्दना की मुद्रा में झुकी एक मूर्ति है जिसके बाल लम्बे हैं। उसके पीछे मानव के चेहरे वाले वृष तथा बकरे की मिली जुली आकृति अंकित है। सामने पीपल का पेड़ है लगता है कि ये पशु वृक्ष देवता के वाहन के रूप में अंकित किए गए हैं। शुंगकला में सांची तथा भरहुत में ऐसे वृक्ष देवियों की अनेक आकृतियाँ अंकित हैं जिन्हें दोहद की अवस्था में अंकित यक्षिणी कहा जाता है। इन भिन्नताओं के आधार पर डॉ. मुखर्जी के अनुसार वहां पर दो प्रकार की वृक्ष-पूजा प्रचलित थी-एक वृक्ष की पूजा तथा दूसरे वृक्ष अधिदेवता की पूजा।