vashtushastr ka udbhav ‘vaidik shastron grh nirmaan yogy bhoomi

वास्तुशास्त्र का उदभव ‘वैदिक शास्त्रों गृह निर्माण योग्य भूमि – वास्तुशास्त्र – vashtushastr ka udbhav ‘vaidik shastron grh nirmaan yogy bhoomi – vastu shastra

अर्थात् जिस भूमि पर अधिक सुरक्षा व सुविधा प्राप्त हो सके, इस प्रकार के मकान को भवन व महल आदि जिसमें मनुष्य रहते हैं या काम करते हैं वास्तु कहते है।
इस ब्रह्मण्ड में सबसे शाक्तिशाली प्राकृति है क्योंकि यही सृष्टि का विकास करती है।
यही ह्रास प्रलय, नाशा करती है।
वास्तु शास्त्र इन्हीं प्राकृतिक शाक्तियों का अधिक प्रयोग कर अधिकतम सुरक्षा व सुविधा प्रदान करता है।

ये प्राकृतिक शाक्तियां अनवरत चक्र से लगातार चलती रही है।

(1) गुरूत्व बल, (2) चुम्बकीय शाक्ति, (3) सौर ऊर्जा पृथ्वी में दो प्रकार की प्रावृति शक्तियां हैं।
(1) गुरूत्व बल, (2) चुम्बकीय शक्ति गुरूत्व :- गुरूत्व का अर्थ है पृथ्वी की वह आकर्षण शक्ति जिससे वह अपने ऊपर

आकाश में स्थित वजनदार वस्तुओं को अपनी ओर खींच लेती है।
उदाहरण के लिए थर्मोकोल व पत्थर का टुकडा। ऊपर से गिराने पर थर्मोकोल देरी से धरती पर आता है जबकि ठोस पत्थर जल्दी आकर्षित करती है। इसी आधार पर मकान के लिए ठोस भूमि प्रशांत मानी गई है।

चुम्बकीय शक्ति :-
यह प्राकृति शक्ति भी निरन्तर पुरे ब्राह्मण्ड में संचालन करती है। सौर परिवार के अन्य ग्रहों के समान पृथ्वी अपनी कक्षा और अपने पर घुमने से अपनी चुम्बकीय शक्ति को अन्त विकसित करती है। हमारा पुरा ब्रह्मण्ड एक चुम्बकीय क्षेत्र है। इसके दो ध्रुव है। एक उत्तर, दूसरा दक्षिण ध्रुव। यह शक्ति उत्तरसे दक्षिण की ओर चलती है।

सौर ऊर्जा :-
पृथ्वी को मिलने वाली ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत सूर्य है। यह एक बडी ऊर्जा का केन्द्र है। सौर ऊर्जा पूर्व से पश्चिम कार्य करती है। पंच महाभूतों का महत्व दर्शन, विज्ञान एवं कला से संबंधित प्राय सभी शास्त्र यह मानते है कि मानव सहित सभी प्राणी पंचमहाभूतों से बने हैं। अत: मानव का तन, मन एवं जीवन इन महाभूतों के स्वत: स्फूर्त और इनके असन्तुलन से निश्क्रिय सा हो जाता है।

वास्तु शास्त्र में इन्हीं पॉंच महाभूतों का अनुपात में तालमेल बैठाकर प्रयोग कर जीवन में चेतना का विकास संभव है।
(1) क्षिति (2) जल (3) पावक (4) गगन (5) समीरा अर्थात् , पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश।
धरती :-
धरती के बिना जीवन एवं जीवन की गतिविधियों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जल :-
जीवन के लिए जल की आवश्यकता होती है।
जल ही जीवन है। इस सृष्टि से यह शास्त्र भवन निर्माण हेतु कुआं, नलकूप, बोरिंग, नल, भूमिगत टंकी, भवन के ऊपर पानी की टंकी आदि का विचार करना।
अग्नि :-
जीवन में पृथ्वी, जल के बाद अग्नि का क्रम आता है। जिस प्रकार मानव जीवन में जब तक ताप है, गर्मी है तब तक जीवन है इसके ठण्डा पडते ही जीवन समाप्त हो जाता है। अग्नि तत्व प्रकाश के रूप में ऊर्जा का संचार कारता है।
वायु :-
वायु की भी महत्वपूर्ण भूमिका है, वायु के बिना जीवन संभव नहीं है। तब तक वायु सक्रिय व शुद्ध है ? तब तक जीवन है।
आकाश :-
पंचमहाभूतों में आकाश का महत्व कम नहीं है। यह चारों तत्वों में सब से बड़ा और व्यापक है। इसका विस्तार अनन्त है। आकाश ही न होता तो जीवन ही नहीं होता।
वास्तु और विज्ञान सूर्य की ऊर्जा को अधिक समय तक भवन में प्रभाव बनाए रखने के लिए ही दक्षिण और पश्चिम भाग की अपेक्षा पूर्व एवं उत्तर के भवन निर्माण तथा उसकी सतह को नीचा रखे जाने का प्रयास किया जाता है।

प्रात : कालीन सूर्य रशिमयों में अल्ट्रा वॉयलेट रशिमयों से ज्यादा विटामिन ”डी” तथा विटामिन ”एफ” रहता है

। वास्तु शास्त्र में भवन का पूर्वी एवं उत्तरी क्षेत्र खुला रखने का मुख्य कारण यही है कि प्रात:कालीन सूर्य रशिमयों आसानी से भवन में प्रविष्ट हो सकें। इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम के भवन क्षेत्र को ऊचां रखने या मोटी दीवार बनाने के पीछे भी वास्तु शास्त्र का एक वैज्ञानिक तथ्य है। क्योकि जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा में करती है तो उस समय पृथ्वी विशेष कोणीय स्थिति लिए होती है। अतएव इस भाग में अधिक भार होने से सन्तुलन बना रहता है और सूर्य के अति ताप से बचा जा सकता है। इस प्रकार इस भाग में गर्मियों में ठण्डक और सर्दियों में गरमाहट बनी रहती है।
खिड़कियों और दरवाजें के बारे में भी वास्तु शास्त्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखता है। इसलिए भवन के दक्षिण या पश्चिम भाग में पूर्व या उत्तर की अपेक्षा छोटे एवे कम दरवाजे खिड़कियाँ रखने के लिए कहा जाता है, ताकि गर्मियों में इस क्षेत्र में कमरों में ठण्डक तथा सर्दियों में गरमाहट महसूसकी जा सके। वास्तु शास्त्र के अनुसार रसोईघर को आगनेय यानी दक्षिण-पूर्व दिशा में रखा जाना चाहिए।
इसका वैज्ञानिक आधार यह है कि इस क्षेत्र में पूर्व से विटामिन युक्त प्रात:कालीन सूर्य की रशिमयों तथा दक्षिण से शुद्ध वायु का प्रवेश होता है, क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओर करती है।
अत: इस कोण की स्थिति के कारण भवन के इस भाग को विटामिन ”डी” एवं विटामिन ”एफ” से युक्त अल्ट्रा वॉयलेट किरणें अधिक समय तक मिलती हैं।
इससे रसोईघर में रखी खाद्य सामग्री लम्बे समय तक शुद्ध रहती है। वास्तु शास्त्र पूजाघर या आराधना स्थल को उत्तर-पूर्व यानी ईशान कोण में बनाने के लिए भी वैज्ञानिक तथ्य देता है। पूजा के समय हमारे शरीर पर अपेक्षाकृत कम वस्त्र या पतले वस्त्र होते हैं, ताकि प्रात:कालीन सूर्य रशिमयों के माध्यम से विटामिन ‘डी` हमारे शरीर में प्राकृतिक रूप से प्रविष्ट हो सके।
उत्तरी क्षेत्र में हमें पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव प्राप्त होता है।
इस क्षेत्र को सबसे अधिक पवित्र माना गया है, क्योंकि इसके द्धारा अंतरिक्ष से अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है।
यही मुख्य कारण है कि मंदिरों एवं साधना स्थलों के प्रवेश द्वार इन्हीं दिशाओं में बनाए जाते हैं।
हमारे वायुमण्डल में 20 प्रकार के मैग्नेटिक फील्ड पाए जाते हैं वैज्ञानिकों के मतानुसार, इनमें से चार प्रकार के मैग्नेटिक फील्ड हमारी शारीरिक गतिविधियों को ऊर्जा प्रदान करने में अत्यंत सहायक होते हैं।
वास्तु शास्त्र ने भी अपने क्रिया-कलापों में इनकी व्यापक सहायता ली है।
बिना तोड़-फोड़ के वास्तु सुधार आजकल पूर्व निर्मित गृह को वास्तु अनुसार करने हेतु तरह-२ की सलाह दी जाती है जो ठीक जो है लेकिन उसको कार्य रूप देना हर परिवार या इंसान के लिए एक कठिन कार्य हो गया है।
जैसा कि विज्ञान ने आज बहुत ज्यादा उन्नति कर ली है उसी तरह वास्तु विज्ञान में भी आज बिना किसी तोड़-फोड़ किए उसमें सुधार करने के नए-नए तरीके सुझाये जा सकते हैं।

उपरोक्त दोषों के मूल निवारक इस प्रकार हैं :-

1 वास्तु दोष निवारक यन्त्र।
2 सिद्ध गणपति स्थापना।
3 पिरामिड यन्त्र। 4 हरे पौधे। 5 दर्पण। 6 प्रकाश। 7 शुभ चिन्ह। 8 जल। 9 क्रिस्टल बाल। 10 रंग। 11 घंटी। 12 बांसुरी । 13 स्वास्तिक यन्त्र। 14 वास्तुशांति हवन। 15 मीन। 16 शंख। 17 अग्निहोत्र।

हमारे पहले वास्तु दोषों को समझना होगा ये निम्न प्रकार के होते हैं :-
1 भूमि दोष :- भूमि का आकार, ढ़लान उचित न होगा। भूखण्डकी स्थिति व शल्य दोष इत्यादि। भवन निर्माण दोष :- पूजा घर, नलकूप, (जल स्त्रोत), रसोई घर, शयनकक्ष, स्नानघर, शौचालय इत्यादि का उचित स्थान पर न होना।
भवन साज-सज्जा दोष :- साज-सज्जा का सामान व उचित चित्र सही स्थान पर न रखना।

४ आगुन्तक दोष :- यह नितांत सत्य है कि आगुन्तक दोष भी कभी-
2 आदमी की प्रगति में बाघा उत्पन्न करता है वह उसको हर तरह से असहाय कर देता है।
इस दोष से बचने हेतु मुख्य द्वार पर सिद्ध गणपति की स्थापना की जा सकती है। उपरोक्त दोषों को किसी भी वास्तु शास्त्री से सम्पर्क कर आसानी से जाना जा सकता है।

वास्तुशास्त्र का उदभव ‘वैदिक शास्त्रों गृह निर्माण योग्य भूमि – vashtushastr ka udbhav ‘vaidik shastron grh nirmaan yogy bhoomi – वास्तुशास्त्र – vastu shastra

 

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