सप्तम स्थान में जितने ग्रह हों, उतने ही विवाह होते हैं। लेकिन उन पर सप्तमेश की दृष्टि आवश्यक है इसी प्रकार कुटुंब स्थान अर्थात् दुतीय स्थान में जितने ग्रह द्वितीयेश से दृष्ट हों, उतने ही विवाह होते हैं बुद्धिमान दैवग्यों अधिक बल वाले ग्रह के योगों से विवाह की संख्या का विचार करना चाहिए इस प्रशंग में सूर्य, चन्द्र व मंगल का क्रमशः ६,१०,७ रूपा बल होता है। शेष ग्रहों का ६ रूपा बल होता है, ऐसा पद्दति के नियम से स्वतः सिद्ध है अर्थात् शेष ग्रह ६ रूपा से अधिक बलि होनें पर बलि मानें जाते है। इस श्लोक की संख्या प्राचीन टीकाकारों नें उक्त प्रकार से ही की है। लेकिन सुकसुत्त्रों के सन्दर्भ में इन पर नई रौशनी पड़ती है। सामान्यतः ३ रूपा या अंश तक षड्बल होनें पर ग्रह निर्बल, ६ से कम होने पर मद्दयम बाली और ६ से अधिक बल होने पर बलवान माना जाता है। यह बात पद्दति ग्रंथों से सिद्ध है तथा हमारे विचार से भी यही बात यहाँ उपयुक्त है। सूत्रों का पाठ प्रस्तुत है।
1. कल्त्राधिपेन कुटूम्बाधिपेन वा दृष्टा यावन्तो ग्रहाः कलत्रस्थानं कुटुम्बस्थानं वा गताः तावत् संख्यकानि कलत्राणी भवन्ति
2. अथवा बलाधिक्यात्
3. तत्र रवेः षट्
4. चन्द्रस्य दश
5. भौमश्य सप्त
6. बुधस्य सप्तदश
7. गुरोः षोडश
8. शुक्रस्य विन्शतिः
8. शनेरेकोनविन्शतिः
10. राहोः
11. केतोः
12. इत्यादि ज्ञेयम्
13. सत्यमेन कलत्र चिन्ता
श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ सुत्रानुसारी हमनें किया है। यद्यपि ‘कुटुम्ब’ शब्द का अर्थ प्राचीनो ने ‘अन्य परिवारजन’ किया था, लेकिन सूत्रानुसार सप्तम या द्वितीय में जितने ग्रह सप्तमेश व द्वितीयेश में दृष्ट हों उतनी ही स्त्रियाँ होती हैं, यह बात सिद्ध होती है तथ यही उपयुक्त है। लेकिन बल के सन्दर्भ में सूत्रकार नें जो संख्या बताई है वह संख्या वास्तव में विंशोत्तरी दशा में इन ग्रहों के दशा वर्षों की संख्या ही है। इसी आधार पर सूर्य, चन्द्रमा व मंगल का बल भी गणेश कवि ने ६,१०,७ क्रमशः माना है जो सुत्रानुसारी है। लेकिन शेष ग्रहों के बल का उल्लेख श्लोकों में नहीं है यह बल विचार प्राचीन जैमिनियत या पराशरमत या यवन मतानुशार पद्धति ग्रंथों के भी विरुद्ध है। हमारी अल्प बुद्धि मई इस सुत्त्रोक्त बल का तारतम्य अवगत नहीं होता है। विद्दवान पाठक इस प्रकरण की प्रमाणिकता पर विचार करें। अस्तु,विवाह संख्या के विषय में भी आजकल जोतिषीयों को आधुनिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। आजकल एकाधिक विवाह गैरकानूनी हैं। अतः सामाजिक पदवी प्रतिष्ठा व स्थिति देखकर एकाधिक विवाह की बात कहनी चाहिए। सामान्यतः द्दितियेश व सप्तमेश पर शुभ प्रभाव या इनका परस्पर सम्बन्ध अथवा किसी शुभ भाव में इस्थिति विवाह की द्योतक होगी। लेकिन साधुओं सन्यासियों आदि के सन्दर्भ में संतान योगों की तरह विवाह योगों को भी निष्क्रिय ही समझना चाहिए।